NCERT Solutions for Class 10 Social Science History Chapter 8 Novels, Society and Hisotry (उपन्यास, समाज और इतिहास)
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प्रश्न अभ्यास
पाठ्यपुस्तक से
संक्षेप में लिखें
प्रश्न 1. इनकी व्याख्या करें
(क) ब्रिटेन में आए सामाजिक बदलावों से पाठिकाओं की संख्या में इजाफा हुआ।
(ख) रॉबिन्सन क्रूसो के वे कौन-से कृत्य हैं, जिनके कारण वह हमें ठेठ उपनिवेशकार दिखाई देने लगता है।
(ग) 1740 के बाद गरीब लोग भी उपन्यास पढ़ने लगे।
(घ) औपनिवेशिक भारत के उपन्यासकार एक राजनैतिक उद्देश्य के लिए लिख रहे थे।
उत्तर
(क) अठारहवीं सदी में मध्यवर्ग और संपन्न हुए। इससे महिलाओं को उपन्यास पढ़ने और लिखने का अवकाश मिल सका। उपन्यासों में महिला जगत को, उसकी भावनाओं, उसके तजुर्बो, मसलों और उसकी पहचाने से जुड़े मुद्दों को समझा-सराहा जाने लगा। कई सारे उपन्यास घरेलू जिंदगी पर केंद्रित थे। इनमें महिलाओं को अधिकार के साथ बोलने का अवसर मिला। बदलती मान्यताओं व परिस्थितियों के बीच महिलाएँ भी लिखने लगीं। उनकी लेखनी ने गृहस्थिन चरित्रों को लोकप्रिय बनाया और ऐसी औरतों के किरदार गढ़े जो सामाजिक मान्यताओं को मानने से पहले उनसे लड़ती हैं। इन सब बदलावों व कारणों से महिलाओं में पढ़ने की रुचि बढ़ी और पाठिकाओं की संख्या में इज़ाफ़ा हुआ।
(ख) डैनियल डेफ़ो कृत रॉबिन्सन क्रूसो एक साहसिक यात्री है लेकिन उसके बहुत-से कृत्य ऐसे हैं, जिससे वह ठेठ उपनिवेशवादी दिखाई देता है। जैसे वह दास व्यापार करता है तथा गैर गोरे लोगों को बराबरी का इंसान नहीं मानता बल्कि अपने से हीनतर जीव मानता है। एक ‘देसी’ को मुक्त कराकर उसे वह अपना गुलाम बना लेता है। वह उससे उसका नाम भी नहीं पूछता और अपनी तरफ़ से उसे फ्राइडे कह कर पुकारता है। क्रूसो का यह व्यवहार उस समय के उपनिवेशवादी व्यवहार का एक उदाहरण है जो उसे एक ठेठ उपनिवेशवादी बनाता है।
(ग) समाज के गरीब तबके काफ़ी समय तक पुस्तकों व प्रकाशन के बाजार से बाहर रहे। शुरू-शुरू में उपन्यास काफ़ी महँगे थे तथा गरीब लोगों की पहुँच से दूर थे। 1740 मे किराए पर चलने वाले पुस्तकालयों की स्थापना के बाद लोगों के लिए किताबें सुलभ हो गईं, तकनीकी सुधार से भी छपाई के खर्चे में कमी आई और मार्केटिंग के नए तरीकों से किताबों की बिक्री बढ़ी और गरीब लोग भी उपन्यास पढ़ने लगे।
(घ) भारत में आधुनिक उपन्यास लेखन 19वीं सदी में प्रारंभ हुआ। प्रारंभ से ही औपनिवेशिक इतिहासकारों द्वारा लिखे गए इतिहास में हिंदुस्तानियों को आमतौर पर कमजोर, आपस में विभाजित और अंग्रेज़ों पर निर्भर बताया जाता था। ऐसे इतिहास से भारत के बौद्धिकों को असंतोष था।
वे यह जताना चाहते थे कि भारतीय स्वतंत्र चेतना वाले थे।
उन्होंने उपन्यास को एक साधन बनाकर भारत के इतिहास व चरित्रों को फिर से गढ़ना शुरू किया, यह कल्पित राष्ट्र, रूमानी साहस, वीरता और त्याग से ओतप्रोत था।
इस तरह उपन्यास में गुलाम जनता ने अपनी चाहत को साकार करने का जरिया हूँढ़ा।
उपन्यास में कल्पित राष्ट्र में इतनी ताकत थी कि इससे प्रेरित होकर असली राजनैतिक आंदोलन उठ खड़े हुए।
ऐसे उपन्यासों में बंकिम चंद्र का आनंदमठ विशेष उल्लेखनीय है।
बहुत-से उपन्यासकारों ने समाज के विभिन्न तबकों व भिन्न-भिन्न पृष्ठभूमि के लोगों को एक साथ अपनी कहानियों में लाकर एक साझा सामुदायिक समझ बनाने का प्रयास किया, ऐसी समझ जिससे राष्ट्र का निर्माण होता है।
उपन्यासकारों की रचनाओं से लगता है कि वे राजनैतिक उद्देश्य के लिए लिख रहे थे!
प्रश्न 2. तकनीक और समाज में आए हुए बदलावों के बारे में बतलाइए जिनके चलते अठारहवीं सदी के यूरोप में उपन्यास पढ़ने वालों की संख्या में वृद्धि हुई।
उत्तर 18वीं सदी में तकनीक और समाज में कुछ ऐसे परिवर्तन आए जिनके कारण उपन्यास पढ़ने वालों की संख्या में वृद्धि हुई। ये परिवर्तन इस प्रकार थे
तकनीकी सुधार के कारण छपाई के खर्चे में कमी आई जिससे उपन्यास अधिक संख्या में छपने लगे।
परिवहन के साधनों के विस्तार के कारण पुस्तकों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाना आसान हो गया। अतः उपन्यास आसानी से आम आदमी की पहुँच में आ गए।
1740 में ऐसे पुस्तकालय स्थापित किए गए जहाँ से किराये पर उपन्यासों को प्राप्त किया जा सकता था। अतः गरीब व्यक्ति के लिए इन्हें पढ़ना आसान हो गया।
उपन्यासों में जो दुनिया रची जाती थी वह पाठकों को अधिक विश्वसनीय और सच नजर आती थी। अत: लोग इन्हें बड़ी रुचि के साथ पढ़ते थे और अपने आस-पास ऐसी ही काल्पनिक दुनिया की रचना करते थे। इससे उन्हें मानसिक संतोष मिलता था।
उपन्यासों के माध्यम से समाज की समस्याओं को उठाया जाता था और अंत में उनका हल भी बताया जाता था। अतः लोगों ने अपने जीवन की समस्याओं, समाज सुधारकों ने समाज सुधार के उपायों तथा उद्योगपतियों ने औद्योगिकसमस्याओं को हल जानने के लिए इन्हें पढ़ना प्रारम्भ किया जिससे इसके पाठक वर्ग में वृद्धि हुई ।
उपन्यास लेखन के बदलाव ने भी इसके पाठक वर्ग में वृद्धि की। पहले उपन्यास कुलीन वर्ग से जुड़े थे। जब इनमें आम लोगों की समस्याओं को उठाया गया तो आम व्यक्ति भी इन्हें पढ़ने में रुचि लेने लगे।
1836 में इंग्लैंड में उपन्यासों को समाचार पत्रों में धारावाहिक के रूप में छापा जाने लगा। इसमें चार्ल्स डिकेन्स का ‘पिकविक पेपर्स’ सबसे पहले छपा। इससे पाठकों को रहस्य का मज़ा आने लगा, वे आपस में चरित्रों पर चर्चा करने लगे और हफ्ता-दर-हफ्ता उनकी कहानियों के साथ जीने लगे।
महिलाओं (उच्च व संपन्न वर्ग) में शिक्षा प्रसार के कारण जब उनमें उपन्यास पठन की रुचि जागृत हुई तो इससे भी उपन्यास के पाठक वर्ग में वृद्धि हुई।
प्रश्न 3. निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखें
(क) उड़िया उपन्यास
(ख) जेन ऑस्टिन द्वारा औरतों का चित्रण
(ग) उपन्यास परीक्षा-गुरु में दर्शायी गई नए मध्यवर्ग की तस्वीर।
उत्तर
(क) उड़िया उपन्यास – उड़िया उपन्यास की शुरुआत 1877-78 में नाटककार रामशंकर राय द्वारा रचित सौदामिनी के नाम से हुई। उन्होंने इसका धारावाहिक प्रकाशन शुरू किया। 30 साल के अन्दर उड़ीसा में फकीर मोहन सेनापति एक प्रमुख उपन्यासकार के रूप में उभरे। उन्होंने एक उपन्यास ‘ छ: माणो आठौ गुंठो’ (1902) लिखा जिसका शाब्दिक अर्थ है-छह एकड़ और बत्तीस कट्टे ज़मीन। इस उपन्यास के साथ एक नए किस्म के उपन्यास की धारा शुरू हुई, जिसमें ज़मीन और उस पर हक के सवाल को उठाया जाने लगा। इस उपन्यास में रामचंद्र मंगराज की कहानी है जो एक जमीदार के यहाँ मैनेजर की नौकरी करता है। यह मैनेजर अपने आलसी और पियक्कड़ मालिक को ठगता है और नि:संतान बुनकर पति-पत्नी भगिया और सरिया की उपजाऊ जमीन को हथियाने की तरकीब सोचता रहता है। यह उपन्यास मील का पत्थर साबित हुआ और इसने साबित कर दिया कि उपन्यास के ज़रिये ग्रामीण मुद्दों को भी गहरी सोच का अहम हिस्सा बनाया जा सकता है। उड़िया के इस उपन्यास ने उड़ीसा के अलावा बंगाल व अन्य स्थानों के लेखकों के लिए रास्ता खोल दिया था।
(ख) जेन ऑस्टिन द्वारा औरतों का चित्रण – जेन ऑस्टिन के उपन्यासों में हमें उन्नीसवीं सदी के ब्रिटेन के ग्रामीण कुलीन समाज की झाँकी मिलती है। हमें ऐसे समाज के बारे में सोचने की प्रेरणा मिलती है जहाँ महिलाओं को धनी या जायदाद वाले वर खोजकर ‘अच्छी’ शादियाँ करने के लिए उत्साहित किया जाता था। जेन ऑस्टिन के उपन्यास ‘प्राइड एंड प्रेज्युडिस’ की पहली पंक्ति में लिखा गया-‘यह एक सर्वस्वीकृत सत्य है कि कोई अकेला आदमी अगर मालदार है तो उसे एक अदद बीवी की तलाश होगी।’ इस बयान से हम ऑस्टिन के समाज को समझ सकते हैं कि उनके उपन्यासों की औरतें क्यों हमेशा अच्छी शादी और पैसे की फ़िराक में रहती हैं।
(ग) उपन्यास ‘परीक्षा-गुरु’ में नए मध्यवर्ग की तस्वीर – उपन्यास ‘ परीक्षा-गुरु’ में नए मध्यवर्ग की तस्वीर को दर्शाया गया है।
इसमें खुशहाल परिवारों के युवाओं को बुरी संग-सोहबत के नैतिक खतरों से आगाह किया गया।
परीक्षा-गुरु’ से नव-निर्मित मध्यवर्ग की अंदरूनी व बाहरी दुनिया का पता चलता है।
इस वर्ग के लोगों को औपनिवेशिक शासन से कदम मिलाने में कैसी मुश्किलें आती हैं और अपनी सांस्कृतिक अस्मिता को लेकर वे क्या सोचते हैं, यह इस उपन्यास का कथ्य है।
आधुनिकता की दुनिया उनको एक साथ भयानक और आकर्षक मालूम पड़ती है। उपन्यास पाठक को जीने के ‘सही तरीके’ बताता है।
उपन्यास के किरदार दो अलग संसारों के बीच की दूरी पाटने की कोशिश करते दिखाई देते हैं।
वे नई कृषि तकनीक अपनाते हैं, व्यापार-कर्म को आधुनिक बनाते हैं, भारतीय भाषा के प्रयोग बदलते हैं ताकि वे पाश्चात्य विज्ञान और भारतीय बुद्धि दोनों को अभिव्यक्त करने में सक्षम हो सकें।
उपन्यास में इस बात पर जोर दिया गया है कि यह सब मध्यवर्गी गृहस्थी के पारंपरिक मूल्यों पर समझौता किए बगैर हो।
चर्चा करें
प्रश्न 1. उन्नीसवीं सदी के ब्रिटेन में आए ऐसे कुछ सामाजिक बदलावों की चर्चा करें, जिनके बारे में टॉमस हार्डी और चार्ल्स डिकेन्स ने लिखा है।
उत्तर 19वीं शताब्दी में ब्रिटेन में औद्योगिक क्षेत्र में कई परिवर्तन आए। इसका विस्तार हुआ, उत्पादन तकनीक में सुधार हुआ आदि। इस कारण इस क्षेत्र में कई समस्याएँ उत्पन्न हुईं जिन पर तत्कालीन उपन्यासकारों ने जमकर लिखा। ये उपन्यासकार थे
टॉमस हार्डी – हाड इंग्लैंड के 19वीं सदी के उपन्यासकार थे। उन्होंने यहाँ पर तेजी से नष्ट होते ग्रामीण समुदायों के बारे में लिखा। उनके समय में बड़े किसानों ने अपनी जमीनों को बाड़ाबंद करके मजदूरों को मशीनों पर लगाकर बाज़ार के लिए उत्पादन करना प्रारंभ कर दिया था। इस बदलाव की झलक उनके उपन्यास ” मेयर ऑफ कास्टरब्रिज” (1886) में मिलती है। यह कहानी माइकल हेंचर्ड की है, जो पहले अनाज व्यापारी था, बाद में कैस्टरब्रिज नामक ग्रामीण क्षेत्र का मेयर बनता है। वह एक स्वतंत्र विचारों वाला व्यक्ति है जो अपने तरीके से व्यापार करता है। परन्तु अपने कर्मचारियों के प्रति उसका व्यवहार अनिश्चित-कभी दयालु, कभी निर्दयी होता है। अतः वह अपने प्रबंधक व प्रतिद्वंदी के सामने टिक नहीं पाता। उसका प्रतिद्वंदी डॉनल्ड फ़ारफ्रे की प्रबंधन तकनीक सक्षम थी और लोगों का मानना था सभी के साथ उसका व्यवहार शालीन था।
इस उपन्यास में जहाँ हार्डी नष्ट होती प्राचीन व्यवस्था के प्रति चिंतित थे, वहीं पुरानी व्यवस्था की कमियों व नई अच्छाइयों के प्रति सचेत हैं। उनकी भाषा शैली आम लोगों की भाषा है तथा उन्होंने अलग-अलग बोलियों से निकटता बनाकर अपने उपन्यास में एक राष्ट्र के विविध समुदायों की साझा दुनिया रची है। अत: इस उपन्यास की भाषा के लिए तत्कालीन प्रचलित भाषाओं की अलग-अलग शैलियों से सामग्री ली। इस प्रकार उन्होंने अपने शास्त्रीय तथा सड़क छाप दोनों तरह की भाषाओं को मिलाकर अपने उपन्यास की रचना की। इस तरह से उनके उपन्यास ने कई संस्कृतियों को एकत्र करने का कार्य किया।
चार्ल्स डिकेन्स – (1812-70)-डिकेन्स भी इंग्लैंड के उपन्यासकार थे। उनके समय में यूरोप औद्योगिक युग में प्रवेश कर रहा था, फैक्ट्रियों का निर्माण तथा व्यवसाय में मुनाफे की वृद्धि के कारण अर्थव्यवस्थाओं का विस्तार हो रहा था। परंतु इसी के साथ कई समस्याएँ जैसे मजदूरों की समस्याएँ, अधिक काम और कम मजदूरी (शहरों में), गरीबी, बेरोजगारी, इनका वर्कहाउस या रैन बसेरों में शरण लेना आदि उजागर होने लगी थीं। औद्योगिक प्रगति के साथ-साथ मुनाफाखोरों को सही व मजदूरों को कमतर इन्सान मानने की प्रवृत्ति बढ़ गई थी। चार्ल्स डिकेन्स ने इसी प्रवृत्ति की निंदा करते हुए लिखा। उनके उपन्यास ‘हार्ड टाइम्स’ (1854) में कोकटाउन, जो कि एक उदास काल्पनिक औद्योगिक शहर है, का वर्णन है। यहाँ मशीनों की भरमार है, धुआँ उगलती चिमनियाँ, प्रदूषण और मकान सब उदासीन हैं। मजदूरों को यहाँ ‘हाथ’ की संज्ञा दी जाती है, जिनका अस्तित्व मशीनों को चलाने तक सीमित है। इस उपन्यास में उन्होंने ‘लाभ के मोह’ तथा इंसान को मशीन मानने की प्रवृति की कड़ी निंदा की है।
अपने उपन्यास ओलिवर ट्विस्ट’ (1838) में उन्होंने एक अनाथ बच्चे ओलिवर की कहानी को लिखा है, जिसे परिस्थितिवश छोटे-मोटे अपराधियों व भिखारियों के साथ रहना पड़ता है। वह एक निर्मम वर्कहाउस में पलता और बढ़ता है तथा बाद में एक अमीर उसे गोद ले लेता है। इसके बाद उसका जीवन सुखद हो जाता है।
इस प्रकार उन्होंने अपने उपन्यासों के माध्यम से औद्योगिक युग के दौरान सभी पक्षों की समस्याओं का चित्रण बड़े ही प्रभावशाली ढंग से किया है जिस कारण आज भी उनके उपन्यास बड़ी उत्सुकता से पढ़े जाते हैं।
प्रश्न 2. उन्नीसवीं सदी के यूरोप और भारत, दोनों जगह उपन्यास पढ़ने वाली औरतों के बारे में जो चिंताएँ पैदा हुई उसे संक्षेप में लिखें। इन चिंताओं से इस बारे में क्या पता चलता है कि उस समय औरतों को किस तरह देखा जाता था?
उत्तर उन्नीसवीं सदी के यूरोप में महिलाएँ उपन्यास पढ़ने लगी थीं। कुछ महिलाएँ लिखने भी लगीं थीं। कई सारे उपन्यास घरेलू जिंदगी पर आधारित थे, इनमें महिलाओं को अधिकार के साथ बोलने का अवसर मिला। लेकिन बहुत-से लोग ऐसे थे जिन्हें यह चिंता थी कि यदि औरतें पढ़ेगी और लिखेंगी तो वे पत्नी, माँ की परंपरागत भूमिकाओं को नहीं सँभालेंगी और घर अस्त-व्यस्त हो जाएँगे।
उन्नीसवीं सदी के भारत में भी अनेक लोगों को यह चिंता थी कि पता नहीं उपन्यासों के कल्पना-लोक का औरतों के जेहन पर क्या असर पड़े। उन्हें लगता था कि इससे वे भटक जाएँगी। इसलिए कुछ लोगों ने पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखकर यह अपील की कि वे उपन्यासों के नैतिक दुष्प्रभाव से बचें। यह निर्देश खासतौर पर महिलाओं व बच्चों के लिए था। ऐसा माना जाता था कि उन्हें आसानी से बहकाया जा सकता है।
यूरोप व भारत के परंपरागत लोगों में महिलाओं द्वारा उपन्यास पढ़ने को लेकर चिंता से पता चलता है कि उस समय महिलाओं को आश्रित और मर्दो के मुकाबले कमतर बुद्धिमान माना जाता था। यह माना जाता था कि उन्हें आसानी से बहकाया जा सकता है, इसलिए वे पढ़-लिखकर या उपन्यासों की कल्पनाशीलता से प्रभावित होकर बिगड़ जाएँगी । इससे उस काल की महिलाओं की बंदिशों का भी पता चलता है कि वे अपने निर्णय स्वयं लेने की स्थिति में नहीं थीं।
प्रश्न 3. औपनिवेशिक भारत में उपन्यास किस तरह औपनिवेशकारों और राष्ट्रवादियों, दोनों के लिए लाभदायक था?
उत्तर औपनिवेशिक भारत में जो उपन्यास लिखे गए उन्होंने उपनिवेशिकों और राष्ट्रवादियों की इस प्रकार से मदद की
1. उपनिवेशिकों के लिए
उन्हें देशी जीवन व रीति-रिवाजों से संबंधित जानकारी मिली।
भारत के विभिन्न समुदायों व जातियों पर शासन करने संबंधी जानकारी मिली।
उपन्यासों से उन्हें भारतीय घरों के परंपरागत स्वरूप का पता चला।
जब इन उपन्यासों को अंग्रेज प्रशासकों व ईसाई मिशनरियों ने पढ़ा तो उन्होंने भारतीयों को कमजोर, आपस में लड़ने वाले और अंग्रेजों पर निर्भर बताया।
2. भारतीय राष्ट्रवादियों के लिए
इन उपन्यासों द्वारा कल्पित राष्ट्र को शक्तिशाली बताया गया, जिसके निर्माण के लिए असली राजनैतिक आंदोलन प्रारंभ हुए।
आनंदमठ (1882) में हिंदू सैन्य संगठन की कहानी है जो हिंदू साम्राज्य की स्थापना के लिए मुसलमानों से लड़ता है। इससे स्वतंत्रता सेनानियों को प्रेरणा मिली।
इसका गीत ‘वंदे मातरम्’ काफी लोकप्रिय हुआ। इस गीत ने स्वतंत्रता सेनानियों में नवीन आशा का संचार किया।
इन उपन्यासों ने जिन सामाजिक कुरीतियों को उठाया उनके प्रति समाज में चेतना जागृत हुई और समाज सुधार के प्रयास प्रारंभ हुए।
इन उपन्यासों द्वारा भारत के प्राचीन गौरव आदि का महिमा मंडन किया गया जिससे आम लोगों में राष्ट्रीय गौरव और स्वयं के प्रति आत्मसम्मान की भावना जागृत हुई। इनके नायक पूरे राष्ट्र के ‘राष्ट्रीय नायक’ बन गए।
प्रश्न 4. इस बारे में बताएँ कि हमारे देश में उपन्यासों में जाति के मुद्दे को किस तरह उठाया गया। किन्हीं दो उपन्यासों का उदाहरण दें और बताएँ कि उन्होंने पाठकों को मौजूदा सामाजिक मुद्दों के बारे में सोचने को प्रेरित करने के लिए क्या प्रयास किए?
उत्तर भारत में जाति प्रथा अति प्राचीन काल से चली आ रही है । मुद्रण संस्कृति का विकास होने के साथ जब इस प्रथा पर प्रहार होने लगा तो उससे जनता में चेतना जागृत हुई। इस पर लिखे गए मुख्य उपन्यास ये थे
1. चंदू मेनन कृत ‘इंदुलेखा’ –
इंदुलेखा’ उपन्यास एक प्रेम कहानी है, जिसमें अंतर्जातीय विवाह की समस्या को उठाया गया है। इसमें नायिका नंबूदरी ब्राह्मण जमींदार और नायक माधवन नायर वर्ग का है, जो जमींदारों को लगान देते थे। अतः दोनों वर्गों में टकराव उत्पन्न हो जाती है।
इसका नायक मद्रास विश्वविद्यालय से अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त पढ़ा-लिखा व्यक्ति है। वह आदर्शवादी है, वह उच्च कोटि का संस्कृतज्ञ, नायर रीति के अनुसार लंबी चुटिया रखने वाला तथा पश्चिमी ढंग के कपड़े पहनने वाला है। इसकी नायिका नंबुदरी ब्राह्मण है जो बेवकूफ जमींदार से विवाह करने से इन्कार कर देती है तथा माधवन से विवाह करने की इच्छा प्रकट करती है।
इस वैवाहिक इच्छा को लेकर दोनों ओर के सदस्यों द्वारा आपत्ति उठाई जाती है परंतु अंत में सभी इसे स्वीकार करते हैं तथा नायक-नायिका द्वारा अपनाए गए मूल्यों की प्रशंसा करते हैं तथा उच्च जाति के अनैतिक कार्यों की निंदा करते हैं।
2. पोथेरी कुंजांबु द्वारा रचित ‘सरस्वती विजयम्’
यह उपन्यास 1892 में उत्तर केरल के निम्न जाति के लेखक पोथेरी कुंजांबु द्वारा लिखा गया।
इसमें लेखक ने जाति प्रथा की निंदा की है।
इसमें अछूत नायक ब्राह्मण जाति के अत्याचारों से बचने के लिए गांव से भागकर शहर में चला जाता है। वहाँ वह ईसाई बन जाता है। वह पढ़-लिख कर जज बनकर अपने क्षेत्र के स्थानीय कचहरी में वापस आता है।
गांववासी ज़मींदार पर उसी की हत्या का आरोप लगाकर मुकदमा कर देते हैं। इस मामले की सुनवाई के अंत में नायक गांव वालों को अपनी असली पहचान बताता है, ज़मींदार भी अपने किए पर पश्चाताप करता है तथा सुधर जाता है।
इस प्रकार इसमें जहाँ जाति प्रथा पर प्रहार किया गया है वहीं शिक्षा के महत्त्व को भी दर्शाया गया है तथा इसे उन्नति और विकास के माध्यम के रूप में प्रकट किया गया है।
प्रश्न 5. बताइए कि भारतीय उपन्यासों में एक अखिल भारतीय जुड़ाव का अहसास पैदा करने के लिए किस तरह की कोशिशें की गईं?
उत्तर भारतीय उपन्यासों ने एक अखिल भारतीय जुड़ाव का अहसास पैदा करने के लिए अपने लेखन में अनेक उपाय किए
उपन्यासकारों ने अपने उपन्यासों में समाज के हरेक तबके के किरदारों को जगह दी।
हर तबके और क्षेत्र के लोगों का चित्रण किया गया।
इससे लोगों को अपने ही समाज में अन्य लोगों के तौर-तरीकों, भाषा प्रयोगों और उनकी आकांक्षाओं का पता चला, इससे एक जुड़ाव का अहसास पैदा हुआ।
अन्य भाषा क्षेत्रों के लोगों ने दूसरे भाषा क्षेत्र के नायकों को लेकर जोशपूर्ण रचनाएँ कीं।
बंगाल में राजपूतों व मराठों के किरदारों को लेकर जोरदार ऐतिहासिक उपन्यास लिखे गए। इससे एक अखिल भारतीय सोच व जुड़ाव का अहसास जागा।
इन उपन्यासों में कल्पित राष्ट्र रूमानी साहस, वीरता और त्याग से ओत-प्रोत था। ये ऐसे गुण थे, जिन्हें उन्नीसवीं सदी के दफ्तरों और सड़कों पर पाना मुश्किल था।
उपन्यास में कल्पित राष्ट्र में इतनी ताकत थी कि इससे प्रेरित होकर असली राजनीतिक आंदोलन उठ खड़े हुए। इन उपन्यासों ने एक साझी सोच व अखिल भारतीय जुड़ाव के अहसास को जगाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
परियोजना कार्य
प्रश्न 1. कल्पना कीजिए कि आप सन् 3035 के इतिहासकार हैं। अभी आपने दो ऐसे उपन्यास देखे हैं जो बीसवीं सदी में लिखे गए थे। उन उपन्यासों से आपको उस जमाने के समाज और रीति-रिवाज के बारे में क्या पता चलता है?
उत्तर सन् 3035 में विज्ञान की उन्नति मानव को एक अत्याधुनिक मशीनी युग में ले आयी है। आज मानव आधा मानवीय जैविक प्राणी व आधा मशीन बन चुका है। पढ़ने व लिखने का कार्य स्वतः मस्तिष्क में प्लांट किये गये चिपों से होता रहता है। पृथ्वी के प्रत्येक प्राणी को एक पहचान नम्बर से जाना जाता है। चन्द्रमा पर बसी हुई बस्तियों पर भी मानव का आना जाना है तथा सूदूर अंतरिक्ष की कई बुद्धिमान सभ्यताओं से भी मानव का सम्पर्क बना हुआ है। फिर भी मानव के सामने नई-नई समस्याएँ अंतरिक्ष की लड़ाका सभ्यताओं के आक्रमण से उत्पन्न होती रहती हैं। समाज में सभी साइवोर्ग (मशीनी मानव) समानता एवं एकता के साथ रहते हैं। सभी औद्योगिक व उत्पादन के कार्य मशीनी रोबोटों द्वारा किये जाते हैं यद्यपि इनमें मानवीय मस्तिष्क की कुछ क्षमताओं को डाला जाता है फिर भी साइवोर्ग (मशीनी मानव) इन्हें नियंत्रण में रखने के लिए इनके रिमोट फ्यूज अपने पास में रखते हैं। सभी कुछ स्वतः होता रहता है। मानव आज भी अपने भविष्य को लेकर चिंतित है और इसीलिए अपने विकास को अपने इतिहास के परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयत्न करता है।
इसी संदर्भ में इतिहास को अपने सुपर कंप्यूटरों की मदद से खोजते हुए मुझे बीसवीं शताब्दी के भारत नामक देश के एक उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद के लिखे दो उपन्यास गोदान और रंगभूमिदेखने को मिले। इन दोनों उपन्यासों से उस जमाने के बारे में बड़ी ही रोचक जानकारी मिलती है :
1. इन उपन्यासों से पता चलता है कि उस काल में विश्व देशों में बँटा हुआ था तथा देश राज्यों में। भारतीय समाज में विभिन्न वर्ग थे। कुछ लोगों का जमीनों पर आधिपत्य था तथा कुछ लोग उनकी जमीनों पर कार्य करते थे। समाज में सत्ता के मालिक लोग-जमींदार, महाजन, पुजारी और औपनिवेशिक नौकरशाह थे। ‘गोदान’ में किसान होरी और उसकी पत्नी धनिया को ये लोग अपने दमन चक्र में ऐसा फाँसते हैं कि वे भूमिहीन मज़दूर बन जाते हैं। पर सबके बावजूद होरी और धनिया अपनी गरिमा बनाए रखते हैं।
2. इस तरह दूसरे उपन्यास रंगभूमि का केन्द्रीय चरित्र, सूरदास तथाकथित अछूत जाति का ज्योतिहीन भिखारी है। इस चरित्र को तम्बाकू फैक्ट्री के लिए अपनी जमीन को कब्जा होने से बचाने के लिए संघर्ष करते हुए प्रस्तुत किया गया है। उस जमाने में मानव की औद्योगीकरण की शुरूआत और उसके मानव के जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव को बताया। गया है। इससे हम यह सोचने पर मजबूर होते हैं कि इस औद्योगीकरण से किसको फायदा हुआ। क्या मानव विकास सही दिशा में हुआ है?
आज 3035 के एक इतिहासकार होने के नाते बीसवीं सदी के उपन्यासों से प्राप्त जानकारी से जहाँ यह पता चलता है उस समय मानव किस तरह वर्गों, जातियों, अमीरी-गरीबी के संघर्षों में फँसा रहता था। वहीं यह तथ्य भी निकलता है। कि मानव शुरू से ही संघर्षशील रहा है तथा हर काल व समय में वह अपनी समस्याओं का मुकाबला करने में सक्षम रहता है। जैसे औद्योगीकरण की शुरूआत मानव के लिए फायदे व नुकसान दोनों लेकर आई वैसे ही हम 3035 ई० की अपनी मशीनी समस्याओं को भी उसी परिप्रेक्ष्य में समझ सकते हैं कि आखिर मानव ने क्या पाया है और क्या पाना चाहता है?