जातिवाद और भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका

 जातिवाद और भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका » 

इस आर्टिकल में जातिवाद और भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका, भारत में जाति प्रथा, जातिवाद, भारत की लोकतांत्रिक राजनीति में जाति की भूमिका, निर्णय प्रक्रिया में जाति के तत्व की प्रभावशाली भूमिका, राजनीतिक दलों में जातिगत आधार पर निर्णय, जातिगत आधार पर मतदान व्यवहार, जाति एवं प्रशासन, राज्य राजनीति में जाति आदि टॉपिक पर चर्चा की गई है।





भारत में जाति प्रथा (Caste system in india)


जाति प्रथा किसी न किसी रूप में संसार के हर कोने में पाई जाती है, पर एक गंभीर सामाजिक कुरीति के रूप में यह हिंदू समाज की ही विशेषता है। वैसे इस्लाम और ईसाई समाज भी इससे अछूते नहीं रह सके हैं। शुरू-शुरू में जाति प्रथा के बंधन कठोर नहीं थे और जाति जन्म पर नहीं वरन कर्म पर आधारित थी। बाद में जाति प्रथा में कठोरता आ गई, वह पूरी तरह जन्म पर आधारित हो गई।


जातिवाद (Casteism)


व्यक्ति अपने आप को एक जाति विशेष का सदस्य समझे, जाति के प्रति सीमित लगाव की स्थिति को अपनाए, यह स्वाभाविक ही स्थिति है। लेकिन व्यक्ति का अपनी जाति के प्रति बहुत लगाव, अपने आपको अन्य जातियों से पूर्णतया अलग समझने की प्रवृत्ति और प्रशासन तथा राजनीति में भी जाति के आधार पर आचरण ही जातिवाद है।

अपनी जाति के प्रति अत्यधिक लगाव के कारण अनेक बार व्यक्ति अन्य जातियों के प्रति विरोध भावना को अपना लेता है। जातिवाद अन्य जातियों के प्रति द्वेष को जन्म देता है, यह विद्वेष सामाजिक व्यवस्था के लिए हानिकारक तत्व बन जाता है।


भारत की लोकतांत्रिक राजनीति में जाति की भूमिका


हमारे देश में यह सोचा गया था कि भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाने के साथ राजनीति में जाति की भूमिका का अंत हो जाएगा या जाति की भूमिका बहुत कमजोर पड़ जाएगी। लेकिन वस्तुत: इस प्रसंग में उनकी धारणा गलत थी। व्यवहार में जब व्यस्क मताधिकार के आधार पर चुनाव प्रारंभ हुए, तो जातिगत संस्थाएं अधिक महत्वपूर्ण बन गई क्योंकि उसके पास भारी संख्या में मत थे और लोकतंत्र में सत्ता प्राप्ति हेतु इन मतों का मूल्य था।

जिन्हें सत्ता की आकांक्षा थी उन्हें सामान्य जनता के पास पहुंचने के लिए संपर्क सूत्र की भी आवश्यकता थी। इस पृष्ठभूमि में राजनीति में जाति की भूमिका अधिकाधिक महत्वपूर्ण होती गयी। इस स्थिति को दृष्टि में रखते हुए ही जयप्रकाश नारायण ने एक बार कहा था की “जाति भारत में अत्यधिक महत्वपूर्ण दल है।” प्रो. वी. के. मेनन का यह निष्कर्ष सही है कि, “स्वतंत्रता के बाद भारत के राजनीतिक क्षेत्र में जाति का प्रभाव पहले की अपेक्षा बढ़ा है।”

मॉरिस जोन्स भी लिखते हैं कि, “जाति के लिए राजनीति का महत्व और राजनीति के लिए जाति का महत्व पहले की तुलना में बढ़ गया है।” जिसे हम राजनीति में जातिवाद से पुकारते हैं, वह वास्तव में जाति का राजनीतिकरण है।

रजनी कोठारी – “जाति एवं राजनीति परस्पर अंतर्विरोधी नहीं है। जो लोग राजनीति में जातिवाद की शिकायत करते हैं, वे राजनीति एवं जाति के स्वरूप को समझ नहीं पाए हैं। भारत की जनता जातियों के आधार पर ही संगठित है। अतः राजनीति को जाती संस्था का उपयोग करना ही होता है।

अतः राजनीति में जातिवाद का अर्थ जाति का राजनीतिकरण है। जाति को अपने दायरे में रखकर राजनीति उसे अपने काम में लाने का प्रयत्न करती है। दूसरी ओर राजनीति द्वारा जाती या बिरादरी को देश की व्यवस्था में भाग लेने का मौका मिलता है।”

जाति व्यवस्था एवं राजनीति की अंतः क्रिया के रूप में रजनी कोठारी ने तीन रूप प्रस्तुत किए हैं –


लौकिक पक्ष


एकीकरण अथवा व्यक्ति को समाज से बांधने का रूप और


चेतना पक्ष।


टिंकर ने राज्यों की राजनीति को “जातियों की राजनीति” की संज्ञा दी है। रजनी कोठारी ने जाति को भारत की राजनीति में महत्वपूर्ण उत्प्रेरक तत्व माना है।

रजनी कोठारी, “यह राजनीति नहीं है जो जाति परस्त हो गई है बल्कि वह जाती है जो राजनीति परस्त हो गई है।”

ग्रेनविले ऑस्टिन, “स्थानीय और राज्य स्तर की राजनीति में जातिय संघ और समुदाय निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करने में उसी प्रकार भूमिका निभाते हैं, जिस प्रकार पश्चिमी देशों में दबाव गुट।”

भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था और लोकतांत्रिक राजनीति में जाति की भूमिका का अध्ययन निम्न बिंदुओं के आधार पर किया जा सकता है।


निर्णय प्रक्रिया में जाति के तत्व की प्रभावशाली भूमिका


भारत में जातियां संगठित होकर राजनीतिक और प्रशासनिक निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करती है। उदाहरण के लिए संविधान में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए, आरक्षण के प्रावधान रखे गए हैं जिस कारण ये जातियां संगठित होकर सरकार पर प्रभाव डालती है कि इन सुविधाओं को और अधिक वर्षों के लिए बढ़ा दिया जाए। अन्य जातियां चाहती हैं कि आरक्षण समाप्त किया जाए अथवा उनका आधार सामाजिक आर्थिक स्थिति हो, उन्हें भी आरक्षण का लाभ प्राप्त हो।

अनुसूचित जातियों के अतिरिक्त अन्य पिछड़ी जातियों द्वारा आरक्षण की मांग और मंडल आयोग की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए 1993 -94 में केंद्र सरकार तथा राज्य सरकारों द्वारा अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की घोषणा भी इस बात को स्पष्ट करती है।


राजनीतिक दलों में जातिगत आधार पर निर्णय


भारत में सभी राजनीतिक दल लोकसभा और विधानसभा चुनाव के लिए उम्मीदवारों का चयन करते समय जातिगत आधार पर निर्णय लेते हैं। वस्तुतः यह स्थिति कम अधिक रूप से सभी राज्यों में रही है और सभी दलों एवं सभी राजनीतिक दलों द्वारा इसी व्यवहार को अपनाया गया है।


जातिगत आधार पर मतदान व्यवहार


भारत में चुनाव में जातिवाद को साधन के रूप में अपनाया जाता है ताकि प्रत्याशी की जाति के मतदाताओं का पूर्ण समर्थन प्राप्त किया जा सके।

उत्तर प्रदेश के चुनाव में श्री चरण सिंह और हरियाणा के चुनाव में देवीलाल की सफलता सदैव ही जाट जाति के मतों की एकजुटता पर निर्भर रही है। केरल के चुनाव में साम्यवादी और मार्क्सवादी दलों ने भी वोट जुटाने के लिए सदैव जाति का सहारा लिया है।


मंत्रीमंडलों के निर्माण में जातिगत प्रतिनिधित्व


मेयर के अनुसार, “जातीय संगठन राजनीतिक महत्व के दबाव समूह के रूप में प्रवृत्त है।” भारतीय राजनीति में उनकी भूमिका वही है जो भूमिका यूरोप और अमेरिका में हित समूह की है।

अनेक जातीय संगठन और समुदाय अखिल भारतीय गुर्जर महासभा, अखिल भारतीय कान्यकुब्ज सभा, अखिल भारतीय ब्राह्मण सभा, राजस्थान में जाट सभा और राजपूत सभा, तमिलनाडु में नाडार जाति संघ, गुजरात में क्षत्रिय महासंघ और खाम (KHAM), बिहार में कायस्थ सभा आदि राजनीतिक मामलों में रुचि लेते हैं और अपने अपने संगठित बल के आधार पर राजनीतिक सौदेबाजी भी करते हैं। लेकिन देश की सभी प्रमुख जातियां इस प्रकार संगठित नहीं है।

खाम (KHAM) गठबंधन – खाम (KHAM) गठबंधन गुजरात राज्य की राजनीति से संबंधित है। 1980 में गुजरात में खाम (KHAM) चार वर्गो K- क्षत्रिय, H- हरिजन (दलित), A- आदिवासी और M- मुस्लिम को साथ लाकर, इन मतदाताओं के दम पर कांग्रेस ने लंबे समय तक शासन किया और संघ और भाजपा को सत्ता से दूर रखा। इस खाम (KHAM) गठबंधन की शुरुआत तत्कालीन मुख्यमंत्री माधव सिंह सोलंकी ने की थी।


जाति एवं प्रशासन (Caste & Administration)


लोकसभा और विधानसभाओं के लिए जातिगत आरक्षण की व्यवस्था प्रचलित है। केंद्र एवं राज्यों की सरकारी नौकरी में पदोन्नति के लिए जातिगत आरक्षण का प्रावधान है। मेडिकल एवं इंजीनियरिंग कॉलेजों में विद्यार्थियों की भर्ती हेतु आरक्षण के प्रावधान मौजूद हैं।

ऐसा भी माना जाता है कि भारत में स्थानीय स्तर के प्रशासनिक अधिकारी निर्णय लेते समय अथवा निर्णयों के क्रियान्वयन में प्रधान और प्रतिष्ठित अथवा संगठित जातियों के नेताओं से प्रभावित हो जाते हैं। बिहार राज्य के प्रशासन में तो जातिवाद का तत्व बहुत अधिक प्रभावी है।


राज्य राजनीति में जाति (Caste in State Politics)


माइकेल ब्रेचर के अनुसार, अखिल भारतीय राजनीति की अपेक्षा राज्य स्तर की राजनीति पर जातिवाद का प्रभाव अधिक है। यद्यपि किसी भी राज्य की राजनीति जातिगत प्रभाव से अछूती नहीं रही है तथापि बिहार, केरल, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा, राजस्थान आदि राज्यों की राजनीति का अध्ययन तो बिना जाति गणित के कर ही नहीं सकते।

”राज्यों की राजनीति में जाति” का प्रभाव कितना अधिक प्रतीत हो रहा है कि टिंकर जैसे विद्वानों ने विचार व्यक्त किया है कि “भारत के बहुत बड़े भाग में आगे आने वाले अनेक वर्षों तक राज्यों की राजनीति, जातियों की राजनीति बनी रहेगी।”

एक विशेष बात यह है कि संविधान के अंतर्गत जातिगत आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की गई है “उसने जाति को और प्रभावशाली बनाया है तथा राजनीति पर जाति की पकड़ और गहरी हो गई है।”

भारतीय राजनीति में जाति के प्रभाव के संबंध में निष्कर्ष रूप में कुछ बातें कही जा सकती है –

भारतीय परिस्थितियों में जाति राजनीति का एक प्रमुख तत्व बना रहेगा। जाति की भूमिका को समाप्त नहीं किया जा सकता। इसे नियंत्रित अवश्य किया जा सकता है और किया जाना चाहिए।

जाति की भूमिका राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में उतनी नहीं है जितनी कि स्थानीय और राज्य स्तर की राजनीति में है।

एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि चुनाव में जाति की भूमिका सामान्य परिस्थितियों में ही रहती है । यदि चुनाव के अंतर्गत कोई महत्वपूर्ण प्रश्न या समस्या सामने हो तो फिर जाति के तत्व का प्रभाव बहुत कम हो जाता है।

1971 के लोकसभा चुनाव में ‘गरीबी हटाओ’ के नारे, 1977 के लोकसभा चुनाव में ‘लोकतंत्र बनाम तानाशाही” और 1984 के लोकसभा चुनाव में ‘राजीव लहर’ और ‘सहानुभूति लहर’, 2014 में ‘मोदी लहर’ के कारण जाति के तत्व का प्रभाव नगण्य हो गया था।

चुनाव में जाति के तत्व की भूमिका होती है, लेकिन केवल जातिवादी राजनीति को अपना कर लोकसभा या विधानसभा चुनाव में सफलता प्राप्त कर पाना संभव नहीं होता। यदि किसी निर्वाचन क्षेत्र में बड़ी संख्या में एक ही जाति होती है, तो उनमें एकता नहीं रहती और इस जाति में उप जातियों के भेद खड़े हो जाते हैं।

कम संख्या वाली जातियां तो अपने बल पर चुनाव जीत ही नहीं सकती है। यदि कोई जाति, अपनी जाति के उम्मीदवार के पक्ष में खुला और जोरदार जातिवादी प्रचार करती है, तो दूसरी जातियां उनके खिलाफ हो जाती है। इसलिए चुनाव की राजनीति में अनेक जातियों का गुट बनाना होता है। इसी कारण चतुर राजनीतिक नेता खुले तौर पर जातिवादी राजनीति को नहीं अपनाते हैं।

यदि 21वीं सदी में भी जातिगत आधार पर आरक्षण की स्थिति को बनाए रखा जाता है तो जातिगत विद्वेष की स्थिति के प्रबल होने की आशंका है।

अतः सामान्य विचार यह बन रहा है कि भविष्य में आरक्षण का आधार सामाजिक आर्थिक होना चाहिए। हमारा लक्ष्य ऐसी स्थिति होनी चाहिए कि किसी भी रूप में आरक्षण की व्यवस्था को बहुत लंबे समय तक न अपनाना पड़े।

सामाजिक-आर्थिक प्रश्नों को उठाकर तथा कल्याणकारी नीतियों को व्यवहार में लागू करके ही राजनीति में जाति के प्रभाव को कम किया जा सकता है। आवश्यकता इस बात की है कि जाति एवं जातिवाद के उस स्वरूप को समाप्त किया जाए जो समाज में भेद उत्पन्न करता है, लेकिन जहां चाहे जाति के आधार पर सही पर गरीब एवं पिछड़ी जातियां राजनीतिक प्रक्रिया में भाग ले रही है उन्हें प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।

रुडोल्फ एवं रूडोल्फ के अनुसार, “अपने परिवर्तित रूप में जाति व्यवस्था ने भारत में कृषक समाज में प्रतिनिधिक लोकतंत्र की सफलता तथा भारतीयों की आपसी दूरी कम कर उसे अधिक समान बनाकर समानता के विकास में सहायता दी है।”

जयप्रकाश नारायण – “जाति भारत में अत्यधिक महत्वपूर्ण दल है।”

1971, 1977 और 1984 तथा 1989 के लोकसभा चुनाव जातिवाद के उदाहरण हैं।


राज्य राजनीति में जाति की प्रधानता


राज्यराजनीति में जाति की प्रधानताआंध्रप्रदेशकम्मा – रेड्डीगुजरातपाटीदार – अनाविल (क्षत्रिय)कर्नाटकलिंगायत – वोक्कलिंगाकेरलएज्बा – नायर, हिंदू – ईसाईतमिलनाडुब्राह्मण-अब्राह्मण, नाडार जातिसंघबिहारराजपूत – ब्राह्मण – कायस्थउड़ीसाआदिवासी या पिछड़ी जातियां – अगड़ी जातियां

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)


राजनीति में जातिवाद का क्या अर्थ है?


उत्तर : राजनीति में जातिवाद का अर्थ जाति का राजनीतिकरण है। जाति को अपने दायरे में रखकर राजनीति उसे अपने काम में लाने का प्रयत्न करती है। दूसरी ओर राजनीति द्वारा जाती या बिरादरी को देश की व्यवस्था में भाग लेने का मौका मिलता है।”


जाति भारत में अत्यधिक महत्वपूर्ण दल है। यह किसने कहा था?


उत्तर : जाति भारत में अत्यधिक महत्वपूर्ण दल है यह श्री जयप्रकाश नारायण ने कहा था।


जाति को भारत की राजनीति में महत्वपूर्ण उत्प्रेरक तत्व मानने वाले विचारक कौन है?


उत्तर : जाति को भारत की राजनीति में महत्वपूर्ण उत्प्रेरक तत्व मानने वाले विचारक रजनी कोठारी है।


खाम (KHAM) गठबंधन क्या है?


उत्तर : खाम (KHAM) गठबंधन गुजरात राज्य की राजनीति से संबंधित है। 1980 में गुजरात में खाम (KHAM) चार वर्गो K- क्षत्रिय, H- हरिजन (दलित), A- आदिवासी और M- मुस्लिम को साथ लाकर, इन मतदाताओं के दम पर कांग्रेस ने लंबे समय तक शासन किया और संघ और भाजपा को सत्ता से दूर रखा। इस खाम (KHAM) गठबंधन की शुरुआत तत्कालीन मुख्यमंत्री माधव सिंह सोलंकी ने की थी।

0 comments: