अध्याय
= 8
क्षेत्रीय
आकांक्षाएं
स्वययत्ता
का अर्थ :-
भारत
में सन् 1980 के दशक को
स्वायत्तता के दशक के
रूप में देखा जाता
हैं ।
स्वययत्ता
का अर्थ होता है
किसी राज्य के द्वारा कुछ
विशेष अधिकार माँगना । देश मे
कई हिस्सों में ऐसी माँग
उठाई गई । कुछ
लोगो मे अपनी माँग
के लिए हथियार भी
उठाए ।
कई बार संकीर्ण स्वार्थो
, विदेशी प्रोत्साहन आदि के कारण
क्षेत्रीयता की भावना जब
अलगाव का रास्ता पकड़
लेती है तो यह
राष्ट्रीय एकता और अखण्डता
के लिए गम्भीर चुनौती
बन जाती है ।
क्षेत्रीय
आकांक्षाये :-
एक क्षेत्र विशेष के लोगों द्वारा
अपनी विशिष्ट भाषा , धर्म , संस्कृति भौगोलिक विशिष्टताओं आदि के आधार
पर की जाने वाली
विशिष्ट मांगों को क्षेत्रीय आकांशाओं
के रूप में समझा
जा सकता है ।
क्षेत्रीयता
के प्रमुख कारण :-
धार्मिक
विभिन्नता
सांस्कृतिक
विभिन्नता
भौगोलिक
विभिन्नता
राजनीतिक
स्वार्थ
असंतुलित
विकास
क्षेत्रीय
राजनीतिक दल इत्यादि।
क्षेत्रवाद
और पृथकतावाद में अंतर :-
क्षेत्रवाद
– क्षेत्रीय आधार पर राजनीतिक
, आर्थिक एवं विकास सम्बन्धी
मांग उठाना ।
पृथकतावाद
– किसी क्षेत्र का देश से
अलग होने की भावना
होना या मांग उठाना
।
जम्मू
एवं कश्मीर मुद्दा :-
यहाँ
पर तीन राजनीतिक एवं
सामाजिक क्षेत्र शामिल है :- जम्मू , कश्मीर और लद्दाख ।
कश्मीर
का एक भाग अभी
भी पाकिस्तान के कब्जे में
है । और पाकिस्तान
ने कश्मीर का भाग अवैध
रूप से चीन को
हस्तांतरित कर दिया है
स्वतंत्रता से पूर्व जम्मू
कश्मीर में राजतंत्रीय शासन
व्यवस्था थी ।
कश्मीर
मुद्दा की समस्या की जड़े :-
1947 के
पहले यहां राजा हरी सिंह का शासन था
। ये भारत मे
नही मिलना चाहते थे ।
पकिस्तान
का मानना था कि जम्मू
– कश्मीर में मुस्लिम अधिक
है तो इसे पाक
में मिल जाना चाहिए
।
शेख
अब्दुल्ला चाहते थे कि राजा
पद छोड़ दे ।
शेख अब्दुल्ला national congress के नेता थे
यह कांग्रेस के करीबी थे
।
राजा
हरि सिंह ने इसको
अलग स्वतंत्र देश घोषित किया
तो पाकिस्तानी कबायलियों की घुसपैठ के
कारण राजा ने भारत
सरकार से सैनिक सहायता
मांगी और बदले में
कश्मीर के भारत में
विलय करने के लिए
विलय पत्र पर हस्ताक्षर
किये ।
तथा
भारत ने संविधान के अनुच्छेद 370 के द्वारा विशेष
राज्य का दर्जा प्रदान
किया ।
पाकिस्तान
के उग्रवादी व्यवहार और कश्मीर के
अलगावादियों के कारण यह
क्षेत्र अशान्त बना हुआ है
।
यहाँ
के अलगावादियों की तीन मुख्य
धाराएँ है –
1 ) कश्मीर
को अलग राष्ट्र बनाया
जाए ।
2 ) कश्मीर
का पाकिस्तान में विलय किया
जाए।
3 ) कश्मीर
भारत का ही भाग
रहे परन्तु इसे और अधिक
स्वायत्ता दी जाए ।
बाहरी
और आंतरिक विवाद :-
पाक
हमेशा कश्मीर पर अपना दावा
करता है । 1947 युद्ध
मे कश्मीर का कुछ हिस्सा
पाक के कबजे में
आया जिसे आजाद कश्मीर
या P.O.K भी कहा जाता
है ।
इसे
370 के तहत अन्य राज्यो
से अधिक स्वययत्ता दी
गई है ।
1948 के
बाद राजनीति :-
पहले
C.M शेख अब्दुल ने भूमि सुधार
, जन कल्याण के लिए काम
किया ।
कश्मीर
को लेकर केंद्र सरकार
और कश्मीर सरकार में मतभेद हो
जाते थे ।
1953 में
शेख अब्दुल्ला बर्खास्त ।
इसके
बाद जो नेता आए
वो शेख जितने लोकप्रिय
नही थे । केंद्र
के समर्थन पर सत्ता पर
रहे पर धांधली का
आरोप लगा ।
1953 से
1974 तक कांग्रेस का राजनीति पर
असर रहा ।
1974 में
इंदिरा ने शेख अब्दुल्ला
से समझौता किया और उन्हें
C.M बना दिया ।
दुबारा
National congress को खडा किया ।
1977 में बहुमत मिला । 1982 में
मौत हो गई।
1982 में
शेख की मौत के
बाद N.C की कमान उनके
बेटे फारुख अब्दुल्ला ने संभाली ।
फारुख C.M बने ।
1986 में
केंद्र ने N.C से चुनावी गठबन्धन
किया ।
पंजाब
संकट :-
1920 के
दशक में गठित अकाली
दल ने पंजाबी भाषी
क्षेत्र के गठन के
लिए आन्दोलन चलाया जिसके परिणाम स्वरूप पंजाब प्रान्त से अलग करके
सन 1966 में हिन्दी भाषी क्षेत्र हरियाणा तथा पहाडी क्षेत्र
हिमाचल प्रदेश बनाये गये ।
अकालीदल
से सन् 1973 के आनन्दपुर साहिब सम्मेलन में पंजाब के
लिए अधिक स्वायत्तता की
मांग उठी कुछ धार्मिक
नेताओं ने स्वायत्त सिक्ख
पहचान की मांग की
और कुछ चरमपन्थियों ने
भारत से अलग होकर
खालिस्तान बनाने की मांग की
।
ऑपरेशन
ब्लू स्टार :-
सन्
1980 के बाद अकाली दल
पर उग्रपन्थी लोगों का नियन्त्रण हो
गया और इन्होंने अमृतसर
के स्वर्ण मन्दिर में अपना मुख्यालय
बनाया । सरकार ने
जून 1984 में उग्रवादियों को
स्वर्ग मन्दिर से निकालने के
लिए सैन्य कार्यवाही ( ऑपरेशन ब्लू स्टार ) की
।
इंन्दिरा
गांधी की हत्या :-
इस सैन्य कार्यवाही को सिक्खों ने
अपने धर्म , विश्वास पर हमला माना
जिसका बदला लेने के
लिए 31 अक्टूबर 1984 को इंन्दिरा गांधी
की हत्या की गई तो
दूसरी तरफ उत्तर भारत
में सिक्खों के विरूद्ध हिंसा
भड़क उठी ।
पंजाब
समझौता :-
पंजाब
समझौता जुलाई 1985 में अकाली दल
के अध्यक्ष हर चन्द सिंह
लोगोवाल तथा राजीव गांधी
के समझौते ने पंजाब में
शान्ति स्थापना के प्रयास किये
।
पंजाब
समझौते के प्रमुख प्रावधान
:-
चण्डीगढ
पंजाब को दिया जायेगा
।
पंजाब
हरियाणा सीमा विवाद सुलझाने
के लिए आयोग की
नियुक्ति होगी ।
पंजाब
, हरियाणा , राजस्थान के बीच राबी
व्यास के पानी बंटवारे
हेतु न्यायाधिकरण गठित किया जायेगा
।
पंजाब
में उग्रवाद प्रभावित लोगों को मुआवजा दिया
जायेगा ।
पंजाब
से विशेष सुरक्षा बल अधिनियम ।
पूर्वोत्तर
भारत :-
इस क्षेत्र में सात राज्य है
जिसमे भारत की 04 प्रतिशत
आबादी रहती है ।
यहाँ
की सीमायें चीन , म्यांमार , बांग्लादेश और भूटान से
लगती है यह क्षेत्र
भारत के लिए दक्षिण
पूर्व एशिया का प्रवेश द्वार
है ।
संचार
व्यवस्था एवं लम्बी अन्तर्राष्ट्रीय
सीमा रेखा आदि समस्याये
यहां की राजनीति को
संवेदनशील बनाती है ।
पूर्वोत्तर
भारत की राजनीति में
स्वायत्तता की मांग , अलगाववादी
आंदोलन तथा बाहरी लोगों
का विरोध मुद्दे प्रभावी रहे है ।
स्वायत्तता
की मांग :-
आजादी
के समय मणिपुर एवं
त्रिपुरा को छोड़कर पूरा
क्षेत्र असम कहलाता था
जिसमें अनेक भाषायी जनजातिय
समुदाय रहते थे इन
समुदायों ने अपनी विशिष्टता
को सुरक्षित रखने के लिए
अलग – अलग राज्यों की
मांग की ।
अलगाववादी
आन्दोलन :-
मिजोरम
– सन् 1959 में असम के
मिजो पर्वतीय क्षेत्र में आये अकाल
का असम सरकार द्वारा
उचित प्रबन्ध न करने पर
यहाँ अलगाववादी आन्दोलन उभारो ।
सन्
1966 मिजो नेशनल फ्रंट ( M . N . E . ) ने लाल डेंगा
के नेतृत्व में आजादी की
मांग करते हुए सशस्त्र
अभियान चलाया । 1986 में राजीव गांधी
तथा लाल डेगा के
बीच शान्ति समझौता हुआ और मिजोरम
पूर्ण राज्य बना ।
नागालैण्ड
:-
नागा
नेशनल कांउसिल ( N . N . C ) ने अंगमी जापू
फिजो के नेतृत्व में
सन् 1951 से भारत से
अलग होने और वृहत
नागालैंण्ड की मांग के
लिए सशस्त्र संघर्ष चलाया हुआ है ।
कुछ
समय बाद N . N . C में दोगुट एक
इशाक मुइवा ( M ) तथा दुसरा खापलांग
( K ) बन गये । भारत
सरकार ने सन् 2015 में
N . N . C – M गुट से शान्ति स्थापना
के लिए समझौता किया
परन्तु स्थाई शान्ति अभी बाकी है
।
बाहरी
लोगों का विरोध :-
पूर्वोत्तर
के क्षेत्र में बंगलादेशी घुसपैठ
तथा भारत के दूसरे
प्रान्तो से आये लोगों
को यहां की जनता
अपने रोजगार और संस्कृति के
लिए खतरा मानती है
।
1979 से
असम के छात्र संगठन आसू ( AASU ) ने बाहरी लोगों
के विरोध में ये आन्दोलन
चलाया जिसके परिणाम स्वरूप आसू और राजीव
गांधी के बीच शान्ति
समझौता हुआ सन् 2016 के
असम विधान सभा चुनावों में
भी बांग्लादेशी घुसपैठ का प्रमुख मुद्दा
था ।
द्रविड
आन्दोलन :-
दक्षिण
भारत के इस आन्दोलन
का नेतृत्व तमिलसमाज सुधारक ई . वी . रामास्वामी
नायकर पेरियार ने किया ।इस
आन्दोलन ने उत्तर भारत
के राजनीतिक , आर्थिक व सांस्कृतिक प्रभुत्व
, ब्राहमणवाद व हिन्दी भाषा का विरोध तथा
क्षेत्रीय गौरव बढ़ाने पर
जोर दिया । इसे
दूसरे दक्षिणी राज्यों में समर्थन न
मिलने पर यह तमिलनाडु
तक सिमट कर रह
गया ।
इस आन्दोलन के कारण एक
नये राजनीतिक दल – “ द्रविड कषगम ”
का उदय हुआ यह
दल कुछ वर्षों के
बाद दो भागो ( D . M . K . एवं A . I . D . M . K . ) में बंट गया
ये दोनों दल अब तमिलनाडु
की राजनीति में प्रभावी है
।
सिक्किम
का विलय :-
आजादी
के बाद भारत सरकार
ने सिक्किम के रक्षा व
विदेश मामले अपने पास रखे
और राजा चोग्याल को
आन्तरिक प्रशासन के अधिकार दिये
।
परन्तु
राजा जनता की लोकतान्त्रिक
भावनाओं को नहीं संभाल
सका और अप्रैल 1975 में
सिक्किम विधान सभा ने सिक्किम
का भारत में विलय
का प्रस्ताव पास करके जनमत
संग्रह कराया जिसे जनता ने
सहमती प्रदान की ।
भारत
सरकार ने प्रस्ताव को
स्वीकार कर सिक्किम को
भारत का 22वाँ राज्य
बनाया ।
गोवा
मुक्ति :-
गोवा
दमन और दीव सोलहवीं
सदी से पुर्तगाल के
अधीन थे और 1947 में
भारत की आजादी के
बाद भी पुर्तगाल के
अधीन रहे ।
महाराष्ट्र
के समाजवादी सत्याग्रहियों के सहयोग से
गोवा में आजादी का
आन्दोलन चला दिसम्बर 1961 में
भारत सरकार ने गोवा में
सेना भेजकर आजाद कराया और
गोवा दमन , दीव को संघ
शासित क्षेत्र बनाया ।
गोवा
को महाराष्ट्र में शामिल होने
या अलग बने रहने
के लिए जनमत संग्रह
जनवरी 1967 में कराया गया
और सन् 1987 में गोवा को
राज्य बनाया गया ।
आजादी
के बाद से अब
तक उभरी क्षेत्रीय आकांक्षाओं
के सबक :-
क्षेत्रीय
आकांक्षाये लोकतान्त्रिक राजनीति की अभिन्न अंग
है ।
क्षेत्रीय
आकाक्षाओं को दबाने की
बजाय लोकतान्त्रिक बातचीत को अपनाना अच्छा
होता है ।
सत्ता
की साझेदारी के महत्व को
समझना ।
क्षेत्रीय
असन्तुलन पर नियन्त्रण रखना
।
📚 अध्याय = 8 📚
💠 पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन 💠
❇️ पर्यावरण
: –
🔹 परि ( ऊपरी ) + आवरण ( वह आवरण ) जो
बनस्पति तथा जीव जन्तुओं
को ऊपर से ढके
हुए है ।
❇️ प्राकृतिक
संसाधन :-
🔹 प्रकृति से प्राप्त मनुष्य
के उपयोग के साधन ।
मानव जीवन का अस्तित्व,
प्रगति एवं विकास संसाधनों पर निर्भर करती
है । आदिकाल से
मनुष्य प्रकृति से विभिन्न प्रकार
की वस्तुएँ प्राप्त कर अपनी आवश्यकताओं
को पूरा करता रहा
है । वास्तव में
संसाधन वे हैं जिनकी
उपयोगिता मानव के लिये
हो ।
❇️ विश्व में
पर्यावरण प्रदूषण के उत्तरदायी कारक
:-
जनसंख्या
वृद्धि ।
वनो
की कटाई ।
उपभोक्तावादी
संस्कृति को बढ़ावा ।
संसाधनों
का अत्याधिक दोहन ।
औद्योगिकीकरण
को बढ़ावा ।
परिवहन
के अत्यधिक साधन ।
❇️ पर्यावरण प्रदूषण
के संरक्षण के उपाय :-
जनसंख्या
नियंत्रण ।
वन
संरक्षण ।
पर्यावरण
मित्र तकनीक का प्रयोग ।
प्राकृतिक
संसाधनों का संतुलित प्रयोग
।
परिवहन
के सार्वजनिक साधनों का प्रयोग ।
जन जागरूकता कार्यक्रम ।
अर्न्तराष्ट्रीय
सहयोग ।
✳️ ” लिमिट्स टू ग्रोथ ” नामक
पुस्तक :-
🔹 वैशिवक मामलो
में सरोकार रखने वाले विद्वानों
के एक समूह ने
जिसका नाम है ( क्लब
ऑफ़ रोम ) ने 1972 में एक पुस्तक
” लिमिट्स टू ग्रोथ ” लिखी । इस
पुस्तक में बताया गया
कि जिस प्रकार से
दुनिया की जनसंख्या बढ़
रही है उसी प्रकार
संसाधन कम होते जा
रहे हैं ।
Note :- UNEP = UNITED NATION ENVIRONMENT PROGRAMME ( सयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम )
❇️ रियो
सम्मेलन / पृथ्वी सम्मेलन ( Earth Summit ) :-
🔹 1992 में संयुक्त राष्ट्रसंघ
का पर्यावरण और विकास के
मुद्दे पर केन्द्रित एक
सम्मेलन ब्राजील के रियो डी
जनेरियो में हुआ ।
इसे पृथ्वी सम्मेलन ( Earth Summit ) कहा जाता है
। इस सम्मेलन में 170
देश , हजारों स्वयंसेवी संगठन तथा अनेक बहुराष्ट्रीय
कंपनियों ने भाग लिया
।
❇️ रियो
सम्मेलन / पृथ्वी सम्मेलन की विशेषताएँ / महत्व
:-
🔹 पर्यावरण को लेकर बढ़ते
सरोकार को इसी सम्मेलन
में राजनितिक दायरे में ठोस रूप
मिला ।
🔹 रियो – सम्मेलन में यह बात
खुलकर सामने आयी कि विश्व
के धनी और विकसित
देश अर्थात उत्तरी गोलार्द्ध तथा गरीब और
विकासशील देश यानि दक्षिणी
गोलार्द्ध पर्यावरण के अलग – अलग
एजेंडे के पैरोकार है
।
🔹 उत्तरी देशों
की मुख्य चिंता ओजोन परत को
नुकसान और ग्लोबल वार्मिंग
को लेकर थी जबकि
दक्षिणी देश आर्थिक विकास
और पर्यावरण प्रबंधन के आपसी रिश्ते
को सुलझाने के लिए ज्यादा
चिंतित थे ।
🔹 रियो – सम्मेलन में जलवायु – परिवर्तन
. जैव – विविधता और वानिकी के
संबंध में कुछ नियमाचार
निर्धारित हुए । इसमें
एजेंडा – 21 के रूप में
विकास के कुछ तौर
– तरीके भी सुझाए गए
।
🔹 इसी सम्मेलन
में ‘ टिकाऊ विकास ‘ का तरीका सुझाया
गया जिसमें ऐसी विकास की
कल्पना की गयी जिसमें
विकास के साथ – साथ
पर्यावरण को भी नुकसान
न पहुंचे । इसे धारणीय
विकास भी कहा जाता
है ।
❇️ अजेंडा
– 21 :-
🔹 इसमे यह
कहा गया कि विकास
का तरीका ऐसा हो जिससे
पर्यावरण को नुकसान न
पहुँचे ।
❇️ अजेंडा
– 21 की आलोचना :-
🔹 इसमे कहा
गया कि Agenda – 21 में पर्यावरण पर
कम और विकास पर
ज्यादा ध्यान दिया जा रहा
है ।
❇️ ” अवर कॉमन
फ्यूचर ” नामक रिपोर्ट की
चेतावनी :-
🔹 1987 में आई इस
रिपोर्ट में जताया गया
कि आर्थिक विकास के चालू तौर
तरीके भविष्य में टिकाऊ साबित
नही होगे ।
❇️ पर्यावरण
को लेकर विकसित और
विकासशील देशों का रवैया :-
🔶 विकसित देश
:-
🔹 उत्तर के विकसित देश
पर्यावरण के मसले पर
उसी रूप में चर्चा
करना चाहते हैं जिस दशा
में पर्यावरण आज मौजूद है
। ये देश चाहते
हैं कि पर्यावरण के
संरक्षण में हर देश
की जिम्मेदारी बराबर हो ।
🔶 विकासशील देश :-
🔹 विकासशील देशों
का तर्क है कि
विश्व में पारिस्थितिकी को
नुकसान अधिकांशतया विकसित देशों के औद्योगिक विकास
से पहुँचा है । यदि
विकसित देशों ने पर्यावरण को
ज्यादा नुकसान पहुँचाया है तो उन्हें
इस नुकसान की भरपाई की
जिम्मेदारी भी ज्यादा उठानी
चाहिए । इसके अलावा
, विकासशील देश अभी औद्योगीकरण
की प्रक्रिया से गुजर रहे
हैं और जरुरी है
कि उन पर वे
प्रतिबंध न लगें जो
विकसित देशों पर लगाये जाने
हैं ।
❇️ साझी
संपदा : –
🔹 साझी संपदा उन
संसाधनो को कहते हैं
जिन पर किसी एक
का नहीं बल्कि पूरे
समुदाय का अधिकार होता
है । जैसे , मैदान
, कुआँ या नदी ।
इसमें पृथ्वी का वायुमंडल अंटार्कटिका
, समुद्री सतह और बाहरी
अंतरिक्ष भी शामिल है
।
🔹 इस दिशा
में कुछ महत्वपूर्ण समझौते
जैसे :-
अंटार्कटिका
संधि ( 1959 )
मॉन्ट्रियल
प्रोटोकॉल ( 1987
) और
अंटार्कटिका
पर्यावरणीय प्रोटोकॉल ( 1991 ) हो चुके है
।
❇️ ग्लोबल
वार्मिंग :-
🔹 वायुमंडल के
ऊपर ओजोन गैस की
एक पतली सी परत
है जिसमे से सूर्य की
रोशनी छन कर पृथ्वी
तक पहुँचती है यह सूर्य
की हानिकारक पराबैगनी किरणों से हमे बचाती
है । इस गैस
की परत में छेद
हो गया है जिससे
अब सूरज की किरणें
Direct पृथ्वी पर आ जाती
है जिससे पृथ्वी का तापमान बढ़
रहा है तापमान बढ़ने
के कारण ग्लेशियर की
बर्फ तेजी से पिघल
रही है जिसके कारण
समुद्र का स्तर बढ़
रहा है इससे उन
स्थान पर ज्यादा खतरा
है जो समुद्र के
किनारे बसे हैं ।
🔹 कार्बन डाई
ऑक्साइड , मीथेन , हाइड्रो फ्लोरो कार्बन ये गैस ग्लोबल
वार्मिंग प्रमुख कारण है ।
❇️ साझी
परन्तु अलग अलग जिम्मेदारी
:-
🔹 वैश्विक साझी
संपदा की सुरक्षा को
लेकर भी विकसित एवं
विकासशील देशों का मत भिन्न
है । विकसित देश
इसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी सभी
देशों में बराबर बाँटने
के पक्ष में है
। परन्तु विकासशील देश दो आधारों
पर विकसित देशों की इस नीति
का विरोध करते है :-
पहला
यह कि साझी संपदा
को प्रदूषित करने में विकसित
देशो की भूमिका अधिक
है
दूसरा
यह कि विकासशील देश
अभी विकास की प्रक्रिया में
है ।
🔹 अतः साझी
संपदा की सुरक्षा के
संबंध में विकसित देशों
की जिम्मेवारी भी अधिक होनी
चाहिए तथा विकासशील देशों
की जिम्मेदारी कम की जानी
चाहिए ।
❇️ क्योटो
प्रोटोकॉल :-
🔹 पर्यावरण समस्याओं
को लेकर विश्व जनमानस
के बीच जापान के
क्योटो शहर में 1997 में
इस प्रोटोकॉल पर सहमती बनी
।
🔹 1992 में इस समझौते
के लिए कुछ सिद्धांत
तय किए गए थे
और सिद्धांत की इस रूपरेखा
यानी यूनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज
पर सहमति जताते हुए हस्ताक्षर हुए
थे । इसे ही
क्योटो प्रोटोकॉल कहा जाता है
।
🔹 भारत ने 2002 में
क्योटो प्रोटोकॉल ( 1997 ) पर हस्ताक्षर किये
और इसका अनुमोदन किया
।
🔹 भारत , चीन और अन्य
विकासशील देशों को क्योटो प्रोटोकॉल
की बाध्यताओं से छूट दी
गई है क्योंकि औद्योगीकरण
के दौर में ग्रीनहाऊस
गैसों के उत्सर्शन के
मामले में इनका कुछ
खास योगदान नहीं था ।
🔹 औद्योगीकरण के दौर को
मौजूदा वैश्विक तापवृद्धि और जलवायु – परिवर्तन
का जिम्मेदार माना जाता है
।
❇️ वन
प्रांतर :-
🔹 गाँवो , देहातो
में कुछ जगह ऐसी
होती है जो पवित्र
माने जाते है ऐसा
माना जाता है कि
इन जगह पर देवी
देवताओं का वास होता
है इसलिए यहाँ के पेड़
को काटा नही जाता
है यह परम्परा चाहे
जो भी हो पर
इन प्रथाओं के कारण पेड़
– पौधों का बचाव हुआ
है ।
❇️ भारत
ने भी पर्यावरण सुरक्षा
के विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से
अपना योगदान दिया है :-
2002 क्योटो
प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर एवं
उसका अनुमोदन ।
2005 में
जी – 8 देशों की बैठक में
विकसित देशों द्वारा की जा रही
ग्रीन हाउस गैसों के
उत्सर्जन में कमी पर
जोर ।
नेशनल
ऑटो – फ्यूल पॉलिसी के अंर्तगत वाहनों
में स्वच्छ ईधन का प्रयोग
।
2001 में
उर्जा सरंक्षण अधिनियम पारित किया ।
2003 में
बिजली अधिनियम में नवीकरणीय उर्जा
के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया
गया ।
भारत
में बायोडीजल से संबंधित एक
राष्ट्रीय मिशन पर कार्य
चल रहा है ।
भारत
SAARC के मंच पर सभी
राष्ट्रों द्वारा पर्यावरण की सुरक्षा पर
एक राय बनाना चाहता
है ।
भारत
में पर्यावरण की सुरक्षा एवं
संरक्षण के लिए 2010 में
राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ( NGT ) की स्थापना
की गई ।
भारत
विश्व का पहला देश
है जहाँ अक्षय उर्जा
के विकास के लिए अलग
मन्त्रालय है ।
कार्बन
डाई ऑक्साइड उत्सर्जन में प्रति व्यक्ति
कम योगदान ( अमेरिका 16 टन , जापान 8 टन
, चीन 06 टन तथा भारत
01 . 38 टन ।
भारत
ने पेरिस समझौते पर 2 अक्टूबर 2016 हस्ताक्षर
किये हैं ।
2030 तक
भारत ने उत्सर्जन तीव्रता
को 2005 के मुकाबले 33 – 35 % कम करने
का लक्ष्य रखा है ।
COP – 23 में
भारत वृक्षारोपण व वन क्षेत्र
की वृद्धि के माध्यम से
2030 तक 2 . 5 से 3 विलियन टन
Co2 के बराबर सिंक बनाने का
वादा किया है ।
❇️ पर्यावरण आंदोलन
:-
🔹 पर्यावरण की
सुरक्षा को लेकर विभिन्न
देशों की सरकारों के
अतिरिक्त विभिन्न भागों में सक्रिय पर्यावरणीय
कार्यकताओ ने अन्तर्राष्ट्रीय एवं
स्थानीय स्तर पर कई
आंदोलन किये है जैसे
:-
🔸 दक्षिणी देशों
मैक्सिकों , चिले , ब्राजील , मलेशिया , इण्डोनेशिया , अफ्रीका और भारत के
वन आंदोलन ।
🔸 ऑस्ट्रेलिया में
खनिज उद्योगों के विरोध में
आन्दोलन ।
🔸 थाइलैंण्ड , दक्षिण
अफ्रीका , इण्डोनेशिया , चीन तथा भारत
में बड़े बाँधों के
विरोध में आंदोलन जिनमें
भारत का नर्मदा बचाओ
आंदोलन प्रसिद्ध है ।
❇️ संसाधनों की
भू – राजनीति : –
🔹 यूरोपीय देशों
के विस्तार का मुख्य कारण
अधीन देशों का आर्थिक शोषण
रहा है । जिस
देश के पास जितने
संसाधन होगें उसकी अर्थव्यवस्था उतनी
ही मजबूत होगी ।
🔸 इमारती लकड़ी
:- पश्चिम के देशों ने
जलपोतो के निर्माण के
लिए दूसरे देशों के वनों पर
कब्जा किया ताकि उनकी
नौसेना मजबूत हो और विदेश
व्यापार बढ़े ।
🔸 तेल भण्डार :- विश्व युद्ध के बाद उन
देशों का महत्व बढ़ा
जिनके पास यूरेनियम और
तेल जैसे संसाधन थे
। विकसित देशों ने तेल की
निर्बाध आपूर्ति के लिए समुद्री
मार्गो पर सेना तैनात
की ।
🔸 जल :- पानी
के नियन्त्रण एवं बँटवारे को
लेकर लड़ाईयाँ हुई । जार्डन
नदी के पानी के
लिए चार राज्य दावेदार
है इजराइल , जार्डन , सीरिया एवम् लेबनान ।
❇️ मूलवासी
: –
🔹 संयुक्त राष्ट्र
संघ ने 1982 में ऐसे लोगों
को मूलवासी बताया जो मौजूदा देश
में बहुत दिनों से
रहते चले आ रहे
थे तथा बाद में
दूसरी संस्कृति या जातियों ने
उन्हें अपने अधीन बना
लिया , भारत में ‘ मूलवासी
‘ के लिए जनजाति या
आदिवासी शब्द का प्रयोग
किया जाता है ।
🔹 1975 में मूलवासियों का
संगठन World
Council of Indigenous Peoples बना
। मूलवासियों की मुख्य माँग
यह है कि इन्हें
अपनी स्वतंत्र पहचान रखने वाला समुदाय
माना जाए , दूसरे आजादी के बाद से
चली आ रही परियोजनाओं
के कारण इनके विस्थापन
एवं विकास की समस्या पर
भी ध्यान दिया जाए ।
अध्याय
= 7
समकालीन
विश्व में सुरक्षा
सुरक्षा
का अर्थ :-
सुरक्षा
का बुनियादी अर्थ है खतरे
से आजादी । परन्तु केवल
उन चीजों को ‘ सुरक्षा ‘ से
जुड़ी चीजों का विषय बनाया
जाय जिनसे जीवन के ‘ केन्द्रीय
मूल्यों को खतरा हो
।
सुरक्षा
की धारणाएँ :-
1 . पारंपरिक
धारणा
( i ) बाहरी
खतरा :-
सैन्य
हमला
जनसंहार
शक्ति
– संतुलन
गठबंधन
शस्त्रीकरण
( ii ) आंतरिक
खतरा :-
कानून
व्यवस्था
अलगाववाद
गृहयुद्ध
2 . गैर
पारंपरिक धारणा
( i ) मानवता
की सुरक्षा :-
( व्यापक
अर्ध में भूखा /महामारी
और प्राकृतिक विपदा से सुरक्षा )
( ii ) विश्व
सुरक्षा :-
नवीन
चुनौतियों , आतंकवाद , बीमारियों , जलवायु संकट से सुरक्षा
शामिल है ।
( 1 ) सुरक्षा
के पारंपरिक धारणा – ( बाहरी सुरक्षा )
इस धारणा से हमारा तात्पर्य
है राष्ट्रीय सुरक्षा की धरणा से
होता है । सुरक्षा
की पारंपरिक अवधरणा में सैन्य ख़तरे
को किसी देश के
लिए सबसे ज्यादा ख़तरनाक
माना जाता है ।
इस ख़तरे का स्रोत कोई
दूसरा मुल्क होता है जो
सैन्य हमले की धमकी
देकर संप्रभुता , स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखंडता
जैसे किसी देश के
केन्द्रीय मूल्यों के लिए ख़तरा
पैदा करता है ।
( 2 ) सुरक्षा
के पारंपरिक धारणा – ( आतंरिक सुरक्षा )
इस धारणा से हमारा तात्पर्य
है देश के भीतर
अंदरूनी खतरों से जिसमें आपसी
लड़ियाँ , गृह युद्ध , सरकार
के प्रति असंतुष्टि से है ।
यह सुरक्षा आंतरिक शांति और कानून – व्यवस्था
पर निर्भर करता है ।
इसमें अपने ही देश
के लोगों से खतरा होता
है ।
सुरक्षा
की अपारम्परिक धारणा :-
सुरक्षा
की अपारम्परिक धारणा में उन सभी
खतरों को शामिल किया
जाता है जो किसी
एक देश नहीं बल्कि
पूरे विश्व के लिए खतरनाक
है और इनका समाधान
कोई एक देश अकेले
नहीं कर सकता ।
दूसरे शब्दों में कहें तो
ऐसे खतरे जो कि
पूरी मानव जाति के
लिए खतरनाक हो ।
जैसे
कि:-
ग्लोबल
वार्मिंग
प्रदूषण
प्राकृतिक
आपदाएं
निर्धनता
महामारी
आतंकवाद
शरणार्थियों
की समस्या
बढ़ती
हुई जनसंख्या आदि
गैर
– पारंपरिक धारणाएँ :-
सुरक्षा
की गैर – पारंपरिक धारणाएं सैन्य खतरों से परे जाती
हैं जिनमें मानव अस्तित्व की
स्थिति को प्रभावित करने
वाले खतरों और खतरों की
एक विस्तृत श्रृंखला शामिल है ।
सुरक्षा
के गैर – पारंपरिक विचारों को मानव सुरक्षा
‘ या ‘ वैश्विक सुरक्षा ‘ कहा गया है
।
मानव
सुरक्षा से हमारा मतलब
है कि राज्यों की
सुरक्षा से ज्यादा लोगों
की सुरक्षा ।
मानव
सुरक्षा की संकीर्ण अवधारणा
के समर्थकों ( समर्थकों ) ने व्यक्तियों को
हिंसक खतरों पर ध्यान केंद्रित
किया ।
दूसरी
ओर , मानव सुरक्षा की
व्यापक अवधारणा के समर्थकों का
तर्क है कि खतरे
के एजेंडे में भूख , बीमारी
और प्राकृतिक आपदा शामिल होनी
चाहिए ।
वैश्विक
सुरक्षा का विचार 1990 के
दशक में ग्लोबल वार्मिंग
, एड्स और इतने पर
जैसे खतरों की वैश्विक प्रकृति
के जवाब में उभरा
।
किसी
सरकार के पास युद्ध
की स्थिति में विकल्प :-
बुनियादी
तौर पर किसी सरकार
के पास युद्ध की
स्थिति में तीन विकल्प
होते है।
( i ) आत्मसमर्पण
करना
( ii ) दूसरे
पक्ष की बात को
बिना युद्ध किए मान लेना
अथवा युद्ध से होने वाले
नाश को इस हद
तक बढ़ाने के संकेत देना
कि दूसरा पक्ष सहमकर हमला
करने से बाज आये
या युद्ध ठन जाय तो
अपनी रक्षा करना ताकि हमलावर
देश अपने मकसद में
कामयाब न हो सके
और पीछे हट जाए
अथवा
( iii ) हमलावार
को पराजित कर देना ।
अपरोध
:-
युद्ध
में कोई सरकार भले
ही आत्मसमर्पण कर दे लेकिन
वह इसे अपने देश
की नीति के रूप
में कभी प्रचारित नहीं
करना चाहेगी । इस कारण
, सुरक्षा – नीति का संबंध
युद्ध की आशंका को
रोकने में होता है
जिसे ‘ अपरोध ‘ कहा जाता है
।
रक्षा
:-
युद्ध
को सीमित रखने अथवा उसको
समाप्त करने से होता
है जिसे रक्षा कहा
जाता है ।
परम्परागत
सुरक्षा निति के तत्व
:-
( i ) शक्ति
– संतुलन
( ii ) गठबंधन
बनाना
( i ) शक्ति
– संतुलन :-
कोई
देश अपने ऊपर होने
वाले संभावित युद्ध या किसी अन्य
खतरों के प्रति सदैव
संवेदनशील रहता है ।
वह कई तरीकों से
निर्णय अथवा शक्ति – संतुलन
को अपने पक्ष में
करने की कोशिश करता
रहता है । अपने
उपर खतरे वाले देश
से शक्ति संतुलन को बनाये रखने
के लिए वह अपनी
सैन्य शक्ति बढाता है , आर्थिक और
प्रोद्योगिकी शक्ति को बढाता है
और मित्र देशों से ऐसी स्थितयों
से निपटने के लिए संधियाँ
करता है ।
( ii ) गठबंधन
बनाना :-
गठबंधन
में कई देश शामिल
होते हैं और सैन्य
हमले को रोकने अथवा
उससे रक्षा करने के लिए
समवेत कदम उठाते हैं
। अधिकांश गठबन्धनों को लिखित संधि
से एक औपचारिक रूप
मिलता है और ऐसे
गठबंधन को यह बात
बिलकुल स्पष्ट रहती है कि
खतरा किससे है । किसी
देश अथवा गठबंधन की
तुलना में अपनी ताकत
का असर बढ़ाने के
लिए देश गठबंधन बनाते
हैं ।
गठबंधन
का आधार :-
( i ) किसी
देश अथवा गठबंधन की
तुलना में अपनी ताकत
का असर बढ़ाने के
लिए देश गठबंधन बनाते
हैं ।
( ii ) गठबंधन
राष्ट्रिय हितों पर आधारित होते
है और राष्ट्रिय हितों
के बदल जाने पर
गठबंधन भी बदल जाते
है ।
एशिया
और अफ्रीका के नव स्वतंत्र
देशों के सामने खड़ी
सुरक्षा की चुनौतियाँ :-
एशिया
और अफ्रीका के नव स्वतंत्र
देशों के सामने खड़ी
सुरक्षा की चुनौतियाँ यूरोपीय
देशों के मुकाबले दो
मायनों में विशिष्ट थीं
।
( i ) एक
तो इन देशों को
अपने पड़ोसी देश से सैन्य
हमले की आशंका थी
।
( ii ) दूसरे
, इन्हें अंदरूनी सैन्य – संघर्ष की भी चिंता
करनी थी ।
सुरक्षा
की परंपरागत धारणा में युद्ध निति
:-
सुरक्षा
की परंपरागत धारणा में स्वीकार किया
जाता है कि हिंसा
का इस्तेमाल यथासंभव सीमित होना चाहिए ।
इसमें ‘ न्याय – युद्ध ‘ की यूरोपीय परंपरा
का ही यह परवर्ती
विस्तार है कि आज
लगभग पूरा विश्व मानता
है –
( i ) किसी
देश को युद्ध उचित
कारणों यानी आत्म – रक्षा
अथवा दूसरों को जनसंहार से
बचाने के लिए ही
करना चाहिए ।
( ii ) इस
दृष्टिकोण के अनुसार किसी
युद्ध में युद्ध – साधनों
का सीमित इस्तेमाल होना चाहिए ।
( iii ) युद्धरत्
सेना को चाहिए कि
वह संघर्षविमुख शत्रु , निहत्थे व्यक्ति अथवा आत्मसपर्मण करने
वाले शत्रु को न मारे
।
( iv ) सेना
को उतने ही बल
का प्रयोग करना चाहिए जितना
आत्मरक्षा के लिए जरुरी
हो और उसे एक
सीमा तक ही हिंसा
का सहारा लेना चाहिए ।
( v ) सुरक्षा
की परंपरागत धरणा इस संभावना
से इन्कार नहीं करती कि
देशों के बीच एक
न एक रूप में
सहयोग हो । इनमें
सबसे महत्त्वपूर्ण है – निरस्त्रीकरण , अस्त्र
– नियंत्रण तथा विश्वास की
बहाली ।
खतरे
के नए स्रोत :-
खतरों
के कुछ नए स्रोत
सामने आए हैं जिनके
बारे में दुनिया काफी
हद तक चिंतित है
। इनमें आतंकवाद , मानवाधिकार , वैश्विक गरीबी , पलायन और स्वास्थ्य महामारी
शामिल हैं ।
आतंकवाद
राजनीतिक हिंसा को संदर्भित करता
है जो नागरिकों को
जानबूझकर और अंधाधुंध निशाना
बनाता है ।
मानवाधिकार
तीन प्रकार के होते हैं
।
पहला
राजनीतिक अधिकार है ,
दूसरा
आर्थिक और सामाजिक अधिकार
है और
तीसरा
प्रकार उपनिवेशित लोगों का अधिकार है
।
एक
अन्य प्रकार की असुरक्षा वैश्विक
गरीबी है । अमीर
राज्य अमीर हो रहे
हैं जबकि गरीब राज्य
गरीब हो रहे हैं
।
दक्षिण
में गरीबी ने भी उत्तर
में बेहतर जीवन , विशेषकर बेहतर आर्थिक अवसरों की तलाश के
लिए बड़े पैमाने पर
पलायन किया है ।
स्वास्थ्य
महामारी जैसे HIV – AIDS , बर्ड फ्लू और
गंभीर तीव्र श्वसन सिंड्रोम ( SARS ) प्रवासन के माध्यम से
देशों में बढ़ रहे
हैं ।
यह
समझना महत्वपूर्ण है कि सुरक्षा
की अवधारणा के विस्तार का
मतलब सब कुछ शामिल
करना नहीं है ।
सुरक्षा
समस्या के रूप में
अर्हता प्राप्त करने के लिए
, एक समस्या को न्यूनतम सामान्य
मानदंड साझा करना चाहिए
।
सहयोग
मूलक सुरक्षा :-
सुरक्षा
के कुछ मुद्दों से
निपटने के लिए सैन्य
टकराव के बजाय सहयोग
की आवश्यकता होती है ।
आतंकवाद से निपटने के
लिए सैन्य मदद ली जा
सकती है लेकिन गरीबी
, पलायन आदि मुद्दों से
निपटने में इसका कोई
फायदा नहीं होगा ।
ऐसी
रणनीतियों को तैयार करना
महत्वपूर्ण हो जाता है
जिसमें अंतर्राष्ट्रीय सहयोग शामिल होता है जो
द्विपक्षीय , क्षेत्रीय , महाद्वीपीय या वैश्विक हो
सकते हैं ।
सहकारी
सुरक्षा में अंतरराष्ट्रीय और
राष्ट्रीय दोनों तरह के अन्य
खिलाड़ी शामिल हो सकते हैं
।
लेकिन
सहकारी सुरक्षा भी अंतिम उपाय
के रूप में बल
के उपयोग को शामिल कर
सकती है । अंतरराष्ट्रीय
समुदाय को तानाशाही से
निपटने के लिए बल
के उपयोग को मंजूरी देनी
पड़ सकती है ।
भारत
की सुरक्षा रणनीति :-
भारतीय
सुरक्षा रणनीति चार व्यापक घटकों
पर निर्भर करती है।
1 . सैन्य
क्षमताओं को मजबूत करना
भारत की सुरक्षा रणनीति
का पहला घटक है
क्योंकि भारत अपने पड़ोसियों
के साथ संघर्षों में
शामिल रहा है ।
2 . भारत
की सुरक्षा रणनीति का दूसरा घटक
अपने सुरक्षा हितों की रक्षा के
लिए अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों और अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों
को मजबूत करना है ।
3 . भारत
की सुरक्षा रणनीति का तीसरा महत्वपूर्ण
घटक देश के भीतर
सुरक्षा चुनौतियों का सामना करने
के लिए तैयार है
।
4 . चौथा
घटक अपनी अर्थव्यवस्था को
इस तरह से विकसित
करना है कि नागरिकों
का विशाल जनसमूह गरीबी और दुख से
बाहर निकल जाए ।
कुछ
महत्वपूर्ण नोट :-
हथियार
नियंत्रण : यह हथियार के
अधिग्रहण को नियंत्रित करता
है ।
निरस्त्रीकरण
: यह सामूहिक विनाश से बचने के
लिए कुछ प्रकार के
हथियारों को छोड़ने के
लिए कहता है ।
कॉन्फिडेंस
बिल्डिंग : एक प्रक्रिया जिसमें
विभिन्न देश अपने सैन्य
योजनाओं के बारे में
एक – दूसरे को सूचित करके
प्रतिद्वंद्वी देशों के साथ विचार
और जानकारी साझा करते हैं
।
वैश्विक
गरीबी : यह एक देश
को कम आय और
कम आर्थिक विकास से पीड़ित होने
के लिए संदर्भित करता
है जिसे कम से
कम विकसित या विकासशील देशों
के रूप में वर्गीकृत
किया जाना है ।
प्रवासन
: यह कुछ विशेष कारणों
से एक राज्य से
दूसरे राज्य में मानव संसाधनों
की आवाजाही है