Chapter - 2
ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन एवं सामाजिक व्यवस्था
सामाजिक परिवर्तन :-
यह वे परिवर्तन हैं जो कुछ समय बाद समाज की विभिन्न इकाइयों में भिन्नता लाते हैं और इस प्रकार समाज द्वारा मानव संस्थाओं , प्रतिमानों , संबंधों , प्रक्रियाओं , व्यवस्थाओं आदि का स्वरूप पहले जैसा नहीं रह जाता है , यह हमेशा चलने वाली प्रक्रिया है ।
आंतरिक परिवर्तन :-
किसी युग में आदर्श तथा मुल्य में यदि पिछले युग के मुकाबले कुछ नयापन दिखाई पड़े तो उसे आंतरिक परिवर्तन कहते हैं ।
बाह्य परिवर्तन या संरनात्मक परिवर्तन :-
यदि किसी सामाजिक अंग जैसे परिवार , विवाह , नातेदारी , वर्ग , जातीय स्तांतरण , समूहों के स्वरूपों तथा आधारों में परिवर्तन दिखाई देता है उसे बाह्य परिवर्तन कहते है ।
सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया के स्वरूप
उद्विकास :-
परिवर्तन जब धीरे – धीरे सरल से जटिल की ओर होता है , तो उसे ‘ उद्विकास ‘ कहते हैं ।
चार्ल्स डार्विन का उद्विकासीय सिद्धांत :-
डार्विन के अनुसार आरम्भ में प्रत्येक जीवित प्राणी सरल होता है ।
कई शताब्दियों अथवा कभी – कभी सहस्त्राब्दियों में धीरे – धीरे अपने आपको प्राकृतिक वातावरण में ढालकर मनुष्य बदलते रहते हैं ।
डार्विन के सिद्धान्त ने ‘ योग्यतम की उत्तरजीविता ‘ के विचार पर बल दिया । केवल वही जीवधारी रहने में सफल होते हैं जो अपने पर्यावरण के अनुरूप आपको ढाल लेते हैं , जो अपने आपको ढालने में सक्षम नहीं होते अथवा ऐसा धीमी गति से करते हैं , लंबे समय में नष्ट हो जाते हैं ।
डार्विन का सिद्धान्त प्राकृतिक प्रक्रियाओं को दिखाता है ।
इसे शीघ्र सामाजिक विश्व में स्वीकृत किया गया जिसने अनुकूली परिवर्तन मे महात्मा महत्ता पर बल दिया ।
क्रांतिकारी परिवर्तन :-
परिवर्तन जो तुलनात्मक रूप से शीघ्र अथवा अचानक होता है । इसका प्रयोग मुख्यतः राजनितिक संदर्भ में होता है । जहाँ पूर्व सत्ता वर्ग को विस्थापित कर लिया जाता है । जैसे :- फ्रांसीसी क्रांति , 1917 की रूसी क्रांति अथवा औद्योगिक क्रांति , संचार क्रांति आदि ।
मूल्यों तथा मान्यताओं में परिवर्तन : ( उदाहरण – बाल श्रम )
- 19 वी शताब्दी के अंत में यह माना जाने लगा कि बच्चे जितना जल्दी हो काम पर लग जाएँ ।
- प्रारंभिक फैक्ट्री व्यवस्था बच्चो के श्रम पर आश्रित थी ।
- बच्चे पाँच अथवा छह वर्ष की आयु से ही काम प्रारम्भ कर देते थें ।
- 20 वीं शताब्दी के दौरान अनेक देशों ने बाल श्रम को कानून द्वारा बंद कर दिया ।
- यद्यपि कुछ ऐसे उद्योग हमारे देश में है जो आज भी श्रम पर कम – से – कम आंशिक रूप से आश्रित है ।
- जैसे दरी बुनना , छोटी चाय की दुकानें , रेस्तराँ , माचिस बनाना इत्यादि ।
- बाल श्रम गैर कानूनी है तथा मालिकों को मुजरिमों के रूप में सजा हो सकती है ।
सामाजिक परिवर्तन के प्रकार के स्त्रोत अथवा कारण :-
- पर्यावरण
- तकनीकी / आर्थिक
- राजनितिक
- सांस्कृतिक
पर्यावरण तथा सामाजिक परिवर्तन :-
पर्यावरण सामाजिक परिवर्तन लाने में एक प्रभावकारी कारक है ।
भौतिक पर्यायवरण सामाजिक परिवर्तन को एक गति देता है । मनुष्य प्रकृति के प्रभावों को रोकने अथवा झेलने में अक्षम था ।
भौगोलिक पर्यावरण या प्रकृति समाज को पूर्णरूपेण बदलकर रख देते हैं । ये बदलाव अपरिवर्तनीय होते है अर्थात् ये स्थायी होते हैं तथा वापस अपनी पूर्वस्थिति में नहीं आने देते है ।
तकनीक / अर्थव्यवस्था और सामाजिक परिवर्तन :-
प्रौद्योगिकी :- भौतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए व्यक्ति जिस उन्नत प्रविधि का प्रयोग करते है , उसी को प्रौद्योगिकी कहते हैं ।
- तकनीकी क्रांति से औद्योगिकरण , नगरीकरण , उदारीकरण , जैसे क्षेत्रों को बढ़ावा मिला ।
- कई बार आर्थिक व्यवस्था में होने वाले परिवर्तन जो प्रत्यक्ष : तकनीकी नहीं होते हैं , भी समाज को बदल सकते हैं ।
- 17 वीं से 19 वीं शताब्दी में दासों का व्यापार प्रारम्भ किया हुआ ।
राजनीतिक ओर सामाजिक परिवर्तन :-
राजनीतिक शक्ति ही सामाजिक परिवर्तन का कारण रही है ।
विश्व के इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब कोई देश से युद्ध में विजयी होता था तो उसका पहला काम वहाँ की सामाजिक व्यवस्था को दुरूस्त करना होता हैं ।
अपने शासनकाल के दौरान अमेरीका ने जापान में भूमि सुधार और औद्योगिक विकास के साथ – साथ अनेक परिवर्तन किए ।
राजनितिक परिवर्तन हमें केवल अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर ही नहीं अपितु हम अपने देश में भी देख सकते हैं ।
उदाहरण :-
- भारत का ब्रिटिश शासन को बदल डालना एक निर्णायक सामाजिक परिवर्तन था ।
- वर्ष 2006 में नेपाली जनता ने नेपाल में ‘ राजतंत्र ‘ शासन व्यवस्था को ठुकरा दिया ।
- सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार राजनैतिक परिवर्तन के इतिहास में अकेला सर्वाधिक बड़ा परिवर्तन है ।
- सार्वभौमिक वयस्क मताधिकारी अर्थात 18 या 18 वर्ष से ज्यादा उम्र के व्यक्तियों को मत देने का अधिकार है ।
संस्कृति और सामाजिक परिवर्तन :-
- व्यक्ति के व्यवहारों या कार्यों में जब बदलाव आता है तो जीवन में सांस्कृतिक परिवर्तन होता है ।
- सामाजिक – सांस्कृतिक संस्था पर धर्म का प्रभाव विशेष रूप से देखने में आता है ।
- धार्मिक मान्यताएँ तथा मानदंडों ने समाज को व्यवस्थित करने में मदद दी तथा यह बिल्कुल आश्चर्यजनक नहीं हैं कि इन मान्यताओं में परिवर्तन ने समाज को बदलने में मदद की ।
- समाज में महिलाओं की स्थिति को सांस्कृतिक उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है ।
सामाजिक व्यवस्था :-
सामाजिक परिवर्तन को सामाजिक व्यवस्था के साथ ही समझा जा सकता है । सामाजिक व्यवस्था तो एक व्यवस्था में एक प्रवृत्ति होती है जो परिवर्तन का विरोध करती है तथा उसे नियमित करती है ।
सामाजिक व्यवस्था का अर्थ है किसी विशेष प्रकार के सामाजिक संबंधों , मूल्यों तथा परिमापों को तीव्रता से बनाकर रखना तथा उनको दोबारा बनाते रहना ।
सामाजिक व्यवस्था को दो प्राप्त करना :-
सामाजिक व्यवस्था को दो प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है :-
- समाज में सदस्य अपनी इच्छा से नियमों तथा मूल्यों के अनुसार कार्य करें ।
- लोगों को अलग – अलग ढंग से इन नियमों तथा मूल्यों को मानने के लिए बाध्य किया जाए ।
- प्रत्येक समाज सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने के लिए इन दोनों प्रकारों के मिश्रण का प्रयोग करता है ।
प्रभाव , सत्ता तथा कानून :-
मनुष्य की क्रियाएँ मानवीय संरचना के अनुसार ही होती हैं । हर समूह में सत्ता के तत्व मूल रूप से विमान रहते हैं । संगठित समूह में कुछ साधारण सदस्य होते हैं और कुछ ऐसे सदस्य होते हैं जिनके पास जिम्मेदारी होती है उनके पास ही सत्ता भी होती हे । प्रभुत्ता का दूसरा नाम शक्ति है ।
मैक्स वेबर के अनुसार , समाज में सत्ता विशेष रूप से आर्थिक आधारों पर ही आधारित होती है यद्यपि आर्थिक कारक सत्ता के निर्माण में एकमात्र नहीं कहा जाता है । जैसे उत्तर भारत की प्रभुत्ता सम्पन्न जातियाँ ।
सत्ता , प्रभाव तथा कानून से गहरे रूप से संबंधित है ।
कानून नियमों की एक व्यवस्था है जिसके द्वारा समाज में सदस्यों को नियंत्रित तथा उनके व्यवहारों को नियमित किया जाता है ।
प्रभुत्व की धारणा शक्ति से संबंधित है तथा शक्ति सत्ता में निहित होती है ।
सत्ता का एक महत्वपूर्ण कार्य कानून का निर्माण करना तथा तथा शक्ति सत्ता में निहित होती है ।
सत्ता के प्रकार :-
परम्परात्मक सत्ता – जो परम्परा से प्राप्त हो
कानूनी सत्ता – जो कानून से प्राप्त हो
करिश्मात्मक सत्ता – पीर , जादूगर , कलाकार ,धार्मिक गुरूओं को प्राप्त सत्ता
अपराध :-
अपराध वह कार्य होता है जो समाज में चल रहे प्रतिमानों तथा आदर्शो के विरूद्ध किया जाए । अपराधी वह व्यक्ति होता हे जो समाज द्वारा स्थापित नियमों के विरूद्ध कार्य करता है । जैसे गाँधी जी की नमक कानून तोड़ना ब्रिटिश सरकार की नजर में अपराध था ।
अपराध से समाज में विघटन आता है क्योंकि अपराध समाज तथा सामाजिक व्यवस्था के विरूद्ध किया गया कार्य है ।
हिंसा :-
हिंसा सामाजिक व्यवस्था का शत्रु है तथा विरोध का उग्र रूप है जो मात्र कानून की ही नहीं बल्कि महत्वपूर्ण सामाजिक मानदंडों का भी अतिक्रमण करती है । समाज में हिंसा सामाजिक तनाव का प्रतिफल है तथा गंभीर समस्याओं की उपस्थिति को दर्शाती है । यह राज्य की सत्ता को चुनौती भी है ।
बढ़ते अपराध और हिंसा व्यवस्था के कारण :-
ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा युवा वर्ग में बढ़ते अपराध और हिंसा व्यवस्था के कारण :
- बढ़ती हुई महंगाई
- बेरोजगारी
- बदले की भावना
- फिल्मों का प्रभाव
- नशा
- लोगों में भय पैदा करना
गाँव :-
जिस भौगोलिक क्षेत्र में जीवन कृषि पर आधारित होता है , जहाँ प्राथमिक संबंधों की भरमार होती है तथा जहाँ कम जनसंख्या के साथ सरलता होती है उसे गाँव कहते है ।
कस्बा :-
कस्बे को नगर का छोटा रूप कहा जाता है जो क्षेत्र से बड़ा होता है परंतु नगर से छोटा होता है ।
नगर :-
नगर वह भौगोलिक क्षेत्र होता है जहाँ लोग कृषि के स्थान पर अनेक प्रकार के कार्य करते हैं । जहाँ द्वितीयक संबंधों की भरमार होती है । तथा अधिक जनसंख्या के साथ जटिल संबंध भी पाये जाते हैं ।
नगरीकरण :-
यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें जनसंख्या का बड़ा भाग गाँव को छोड़कर नगरों एंव कस्बों की ओर पलायन करता है ।
ग्रामीण तथा नगरीय समुदायों में अन्तर :-
ग्रामीण क्षेत्र | नगरीय क्षेत्र |
---|---|
गांव का आकार छोटा होता है । | गांव का आकार बड़ा होता है । |
सम्बन्ध व्यक्तिगत होते हैं । | व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं होते हैं । |
सामाजिक संस्थाएं जैसे- जाति , धर्म , प्रथाएं अधिक प्रभावशाली हैं । | सामाजिक संस्थाएं जैसे- जाति , धर्म , प्रथाएं अधिक प्रभावशाली नहीं हैं । |
सामाजिक परिवर्तन धीमा है । | सामाजिक परिवर्तन तीव्र है । |
जनसंख्या का घनत्व कम है । | जनसंख्या का घनत्व ज्यादा है । |
मुख्य व्यवसाय कृषि है । | कृषि के अलावा सभी व्यवसाय हैं । |
ग्रामीण क्षेत्र और सामाजिक परिवर्तन :-
- संचार के नए साधनों के परिवर्तन अतः सांस्कृतिक पिछड़ापन न के बराबर ।
- भू – स्वामित्व में परिवर्तन – प्रभावी जातियों का उदय ।
- प्रबल जाति – जो आर्थिक , सामाजिक तथा राजनितिक समाज में शक्तिशाली ।
- कृषि की तकनीकी प्रणाली में परिवर्तन , नई मशीनरी के प्रयोग ने जमींदार तथा मजदूरों के बीच की खाई को बढ़ाया ।
- कृषि की कीमतों में उतार – चढ़ाव , सूखा तथा बाढ़ किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर कर दिया ।
- निर्धन ग्रामीणों के विकास के लिए सरकार ने 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना अधिनियम कार्यक्रम शुरू किया ।
नगरीय क्षेत्र और सामाजिक परिवर्तन :-
- प्राचीन नगर अर्थव्यवस्था को सहारा देते थे ।
- उदाहरण :- जो नगर पत्तन और बंदरगाहों के किनारे बसे थे व्यापार की दृष्टि से लाभ की स्थिति में थे ।
- धार्मिक स्थल जैसे राजस्थान में अजमेर , उत्तरप्रदेश में वाराणसी अधिक प्रसिद्ध थे ।
जनसंख्या का घनत्व अधिक होने से उत्पन्न समस्याएं :-
जनसंख्या का घनत्व अधिक होने से निम्नलिखित समस्याएं उत्पन्न होती हैं :- अप्रवास , बेरोजगारी , अपराध , जनस्वास्थ्य , गंदी बस्तियाँ , गंदगी , ( सफाई , पानी , बिजली का अभाव ) , प्रदूषण ।
पृथक्कीकरण :-
यह एक प्रक्रिया है जिसमें समूह , प्रजाति , नृजाति , धर्म तथा अन्य कारकों द्वारा विभाजन होता है ।
घैटोकरण या बस्तीकरण :-
समान्यतः यह शब्द मध्य यूरोपीय शहरों में यहूदियों की बस्ती के लिए प्रयोग किया जाता है । आज के सन्दर्भ में यह विशिष्ट धर्म , नृजाति , जाति या समान पहचान वाले लोगों के साथ रहने को दिखाता है ।
घैटोकरण की प्रक्रिया में मिश्रित विशेषताओं वाले पड़ोस के स्थान पर एक समुदाय पड़ोस में बदलाव का होना है ।
मॉस ट्रांजिट :-
शहरों में आवागमन का साधन जिसमें बड़ी संख्या में लोगों का आना जाना होता हैं जैसे मैट्रो ।
सीमाशुल्क शुल्क , टैरिफ :-
किसी देश में प्रवेश करने या छोड़ने वाले सामानों पर लगाए कर , जो इसकी कीमत बढ़ाते है और घरेलू रूप से उत्पादित सामानों के सापेक्ष कम प्रतिस्पधी बनाते हैं ।
प्रभु जातिः ऍम . एन . श्री निवास के अनुसार :-
भुमिगत मध्यवर्ती जातियों को संदर्भित करता है जो संख्यात्मक रूप से बड़े है और इसलिए किसी दिए क्षेत्र में राजनीतिक प्रभुत्व का आनंद लेते हैं ।
गेटेड समुदाय :-
शहरी इलाके ( आमतौर पर ऊपरी वर्ग या समृद्धि ) नियंत्रित प्रवेश और बाहर निकलने के साथ बाड़ , दीवारों और द्वारों से घिरे हुए हैं ।
यहूदी , यहूदीकरण :-
मूल रूप से उस इलाके के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द जहाँ यहूदी मध्ययुगीन यूरोपीय शहरों में रहते थे , आज किसी विशेष पड़ोस , जातीयता , जाति या अन्य आम पहचान के लोगों की एकाग्रता के साथ किसी भी पड़ोस को संदर्भित करता है । यहूदीकरण करता है । यहूदीकरण एकमात्र समूदाय पड़ोस में मिश्रित संरचना पड़ोस के रूपांतरण के माध्यम से यहूदी बस्ती बनाने की प्रक्रिया है ।