Chapter - 2
" संघवाद "
❇️ संघवाद का अर्थ :-
🔹 साधारण शब्दों में कहें तो संघवाद संगठित रहने का विचार है । ( संघ = संगठन + वाद = विचार )
❇️ संघवाद :-
🔹 संघवाद एक संस्थागत प्रणाली है जिसमें दो स्तर की राजनीतिक व्यवस्थाओं को सम्मिलित किया जाता है , इसमें एक संधीय ( केन्द्रीय ) स्तर की सरकार और दूसरी प्रांतीय ( राज्यीय ) स्तर की सरकारें ।
❇️ संघीय शासन व्यवस्था :-
🔹 संघीय शासन व्यवस्था में सत्ता का वितरण दो या दो से अधिक स्तर पर किया जाता है । संघीय शासन व्यवस्था में सर्वोच्च सत्ता केंद्रीय सरकार व उसके विभिन्न छोटी इकाइयों के मध्य बँटी होती है ।
🔹 आमतौर पर इसमें एक सरकार पूरे देश के लिए होती है जिसके जिम्मे राष्ट्रीय महत्व के विषय होते हैं । फिर , राज्य या प्रांतों के स्तर की सरकारें होती हैं जो शासन के दैनदिन कामकाज को देखती हैं ।
🔹 सत्ता के इन दोनों स्तर की सरकारें अपने – अपने स्तर पर स्वतंत्र होकर अपना काम करती हैं ।
❇️ संघीय शासन व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ :-
- संघीय व्यवस्था में सत्ता केन्द्रीय सरकार और अन्य सरकारों में बंटी होती है ।
- केंद्र सरकार राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर कानून बनाती है और राज्य सरकारें राज्य से संबंधित विषयों पर ।
- दोनों स्तर की सरकारें अपने – अपने स्तर पर स्वतंत्र होकर अपना काम करती हैं ।
- संघीय व्यवस्था में दो या दो से अधिक स्तर की सरकारें होती हैं ।
- अलग – अलग स्तरी की सरकार द्वारा एक ही नागरिक समूह पर शासन होता है ।
- सरकारों के अधिकार क्षेत्र संविधान मे स्पष्ट रूप से वर्णित ।
- संविधान के मौलिक प्रावधानों में बदलाव का अधिकार दोनों स्तरों की सरकारों की सहमति से ही संभव होता है ।
- अदालतों को संविधान और सरकारों के अधिकारों की व्याख्या करने का अधिकार ।
- वित्तीय स्वायत्तता के लिए राजस्व के अलग अलग स्त्रोत निर्धारित ।
- मूल उद्देश्य क्षेत्रीय ” विविधताओं का सम्मान करते हुए देश की एकता की सुरक्षा और उसे बढ़ावा देना ।
❇️ संघवाद की बुराइयाँ :-
- केन्द्रीय सरकार का अधिक शक्तिशाली होना ।
- संविधान संशोधन का अधिकार केवल केन्द्र को ही प्राप्त होना ।
- संसद को अधिक अधिकार होना ।
- धन संबंधी अधिकारों का केन्द्र के पास अधिक होना ।
- केन्द्र सरकार का राज्य सरकारों के मामले में अनावश्यक हस्तक्षेप ।
❇️ संघवाद के प्रकार :-
- साथ आकर संघ बनाना
- साथ लेकर संघ बनाना
🔶 साथ आकर संघ बनाना :- दो या अधिक स्वतंत्र इकाइयों को साथ लेकर एक बड़ी इकाई का गठन । सभी स्वतंत्र राज्यों की सत्ता एक समान होती है । जैसे :- ऑस्ट्रेलिया , संयुक्त राज्य अमेरिका ।
🔶 साथ लेकर संघ बनाना :- एक बड़े देश द्वारा अपनी आंतरिक विविधता को ध्यान में रखते हुए राज्यों का गठन । केन्द्र अधिक शक्तिशाली होता है । जैसे :- भारत , जापान ।
❇️ एकात्मक और संघात्मक सरकारों के बीच अंतर :-
🔶 एकात्मक शासन व्यवस्था :-
- इसमें केन्द्र सरकार शक्तिशाली होती है ।
- इसके अंतर्गत संविधान संशोधन केन्द्र सरकार कर सकती है ।
- शक्तियाँ एक जगह पर केंद्रित होती हैं ।
- इसमें एक ही नागरिकता होती है ।
- केन्द्र सरकार राज्यों से शक्तियाँ ले सकती हैं ।
🔶 संघात्मक शासन व्यवस्था :-
- इसमें केन्द्रीय सरकार अपेक्षाकृत कमजोर होती है ।
- इसमें केन्द्र सरकार अकेले संविधान संशोधन नहीं कर सकती है ।
- शक्तियाँ कई स्तरों पर विभाजित होती हैं ।
- कई संघीय व्यवस्था वाले देशों में दोहरी नागरिकता होती है ।
- दोनों स्तर की सरकारें अपने अधिकार क्षेत्र में स्वतंत्र होती हैं ।
❇️ भारत की संघीय व्यवस्था में बेल्जियम से मिलती जुलती एक विशेषता और उससे अलग एक विशेषता :-
🔶 बेल्जियम से मिलती जुलती एक विशेषता :-
🔹 भारत में बेल्जियम से मिलती – जुलती विशेषता यह है कि दोनों देशों में संपूर्ण देश के लिए एक संघ सरकार का गठन किया गया है ।
🔶 बेल्जियम से मिलती जुलती अलग एक विशेषता :-
🔹 अलग विशेषता यह है कि बेल्जियम की केन्द्र सरकार की अनेक शक्तियाँ देश के दो क्षेत्रीय सरकारों को सुपुर्द कर दी गई हैं , जबकि भारत में केंद्र सरकार अनेक मामलों में राज्य सरकार पर नियंत्रण रखती है ।
❇️ भारत में संघीय व्यवस्था :-
🔹 एक बहुत ही दुखद और रक्तरंजित विभाजन के बाद भारत आजाद हुआ । आजादी के कुछ समय बाद ही अनेक स्वतंत्र रजवाड़ों का भारत में विलय हुआ । इसमें संघ शब्द नहीं आया पर भारतीय संघ का गठन संघीय शासन व्यवस्था के सिद्धांत पर हुआ है ।
🔹 संविधान ने मौलिक रूप से दो स्तरीय शासन व्यवस्था का प्रावधान किया था । संघ सरकार ( केंद्र सरकार ) और राज्य सरकारें । केन्द्र सरकार को पूरे भारतीय संघ का प्रतिनिधित्व करना था । बाद में पंचायत और नगरपालिकाओं के रूप में संघीय शासन का एक तीसरा स्तर भी जोड़ा गया ।
❇️ भारतीय संविधान में केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का बँटवारा :-
🔹 संविधान में स्पष्ट रूप से केंद्र और राज्य सरकारों के बीच विधायी अधिकारों को तीन हिस्से में बाँटा गया है । ये तीन सूचियाँ इस प्रकार हैं :-
- संघ सूची
- राज्य सूची
- समवर्ती सूची
🔶 संघ सूची :-
- संघ सूची में प्रतिरक्षा , विदेशी मामले , बैंकिंग , संचार और मुद्रा जैस राष्ट्रीय महत्व के विषय है ।
- पूरे देश के लिए इन मामलों एक तरह की नीतियों की जरूरत है ।
- इसी कारण इन विषयों को संघ सूची में डाला गया है ।
- संघ सूची में वर्णित विषयों के बारे में कानून बनाने का अधिकार सिर्फ केन्द्र सरकार को है ।
- पहले इसमें 97 विषय थे परन्तु वर्तमान में इसमे 100 विषय हैं ।
🔶 राज्य सूची :-
- राज्य सूची में पुलिस , व्यापार , वाणिज्य , कृषि और सिंचाई जैसे प्रांतीय और स्थानीय महत्व के विषय है ।
- राज्य सूची में वर्णित विषयों के बारे में सिर्फ राज्य सरकार ही कानून बना सकती है ।
- पहले इसमें 66 विषय थे । परन्तु वर्तमान में इसमें 61 विषय है ।
🔶 समवर्ती सूची :-
- समवर्ती सूची में शिक्षा , वन , मजदूर संघ , विवाह , गोद लेना और उत्तराधिकार जैसे वे विषय हैं जो केन्द्र के साथ राज्य सरकारों की साझी दिलचस्पी में आते हैं ।
- इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार , दोनों को ही है ।
- लेकिन जब दोनों के कानूनों में टकराव हो तो केन्द्र सरकार द्वारा बनाया कानून ही मान्य होता है ।
- पहले इसमें 47 विषय थे परंतु वर्तमान में इसमें 52 विषय हैं ।
❇️ अवशिष्ट शक्तियाँ :-
🔹 वे विषय जो ऊपर के तीन सूचियों में नहीं हैं तथा जिन पर कानून बनाने का अधिकार केंद्र सरकार को है ।
❇️ संघीय व्यवस्था कैसे चलती है ?
🔶 भाषायी राज्य :-
- भाषा के आधार पर प्रांतों का गठन हमारे देश की पहली और एक कठिन परीक्षा थी ।
- नए राज्यों को बनाने के लिए कई पुराने राज्यों की सीमाओं को बदला गया ।
- जब एक भाषा के आधार पर राज्यों के निर्माण की मांग उठी तो राष्ट्रीय नेताओं को डर था कि इससे देश टूट जाएगा ।
- केंद्र सरकार ने कुछ समय के लिए राज्यों के पुर्नगठन को टाला परंतु हमारा अनुभव बताता है कि देश ज्यादातर मजबूत और एकीकृत हुआ ।
- प्रशासन भी पहले की अपेक्षा सुविधाजनक हुआ है ।
- कुछ राज्यों का गठन भाषा के आधार पर ही नहीं बल्कि संस्कृति , भूगोल व नृजातीयता की विविधता को रेखांकित एवं महत्त्व देने के लिए किया गया ।
🔶 भारत की भाषा नीति :-
- भारत के संघीय ढाँचे की दूसरी परीक्षा भाषा नीति को लेकर हुई ।
- भारत में किसी एक भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा न देकर हिंदी और अन्य 21 भाषाओं को अनुसूचित भाषा का दर्जा दिया गया है ।
- अंग्रेजी को राजकीय भाषा के रूप में मान्यता दी गई है , विशेषकर गैर हिन्दी भाषी प्रदेशों को देखते हुए ।
- सभी राज्यों की मुख्य भाषा का विशेष ख्याल रखा गया है ।
- हिंदी को राजभाषा माना गया पर हिंदी सिर्फ 40 फीसदी ( लगभग ) भारतीयों की मातृभाषा है इसलिए अन्य भाषाओं के संरक्षण के अनेक दूसरे उपाय किए गए ।
- केंद्र सरकार के किसी पद का उम्मीदवार इनमें से किसी भी भाषा में परीक्षा दे सकता है बशर्ते उम्मीदवार इसको विकल्प के रूप में चुने ।
🔶 केंद्र – राज्य संबंध :-
- सत्ता की साझेदारी की संवैधानिक व्यवस्था वास्तविकता में कैसा रूप लेगी यह ज्यादातर इस बात पर निर्भर करता है कि शासक दल और नेता किस तरह इस व्यवस्था का अनुसरण करते हैं ।
- काफी समय तक हमारे यहाँ एक ही पार्टी का केंद्र और अधिकांश राज्यों में शासन रहा । इसका व्यावहारिक मतलब यह हुआ कि राज्य सरकारों ने स्वायत्त संघीय इकाई के रूप में अपने अधिकारों का प्रयोग नहीं किया ।
- जब केंद्र और राज्य में अलग – अलग दलों की सरकारें रहीं तो केंद्र सरकार ने राज्यों के अधिकारों की अनदेखी करने की कोशिश की । उन दिनों केंद्र सरकार अक्सर संवैधानिक प्रावधानों का दुरुपयोग करके विपक्षी दलों की राज्य सरकारों को भंग कर देती थी ।
- यह संघवाद की भावना के प्रतिकूल काम था । 1990 के बाद से यह स्थिति काफी बदल गई । इस अवधि में देश के अनेक राज्यों में क्षेत्रीय दलों का उदय हुआ । यही दौर केंद्र में गठबंधन सरकार की शुरुआत का भी था । चूँकि किसी एक दल को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत नहीं मिला इसलिए प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों को क्षेत्रीय दलों समेत अनेक पार्टियों का गठबंधन बनाकर सरकार बनानी पड़ी ।
- इससे सत्ता में साझेदारी और सरकारों की स्वायत्तता का आदर करने की नई संस्कृति पनपी ।
- इस प्रवृत्ति को सुप्रीम कोर्ट के एक बड़े फैसले से भी बल मिला । इस फैसले के कारण राज्य सरकार को मनमाने ढंग से भंग करना केंद्र सरकार के लिए मुश्किल हो गया । इस प्रकार आज संघीय व्यवस्था के तहत सत्ता की साझेदारी संविधान लागू होने के तत्काल बाद वाले दौर की तुलना में ज्यादा प्रभावी है ।
❇️ गठबंधन सरकार :-
🔹 एक से अधिक राजनीतिक दलों के द्वारा मिलकर बनाई गई सरकार , को गठबंधन सरकार कहते हैं ।
❇️ अनुसूचित भाषाएँ :-
🔹 वे 22 भाषाएँ जिन्हें भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में रखा गया है , अनुसूचित भाषाएँ कहते हैं ।
❇️ भाषाई राज्य क्यों :-
- राज्यों की भी अपनी राजभाषाएँ हैं । राज्यों का अपना अधिकांश काम अपनी राजभाषा में ही होता है ।
- संविधान के अनुसार सरकारी कामकाज की भाषा के तौर पर अंग्रेजी का प्रयोग 1965 में बंद हो जाना चाहिए था पर अनेक गैर – हिंदी भाषी प्रदेशों ने मांग की कि अंग्रेजी का प्रयोग जारी रखा जाए ।
- तमिलनाडु में तो इस माँग ने उग्र रूप भी ले लिया था । केंद्र सरकार ने हिंदी के साथ – साथ अंग्रेजी को राजकीय कामों में प्रयोग की अनुमति देकर इस विवाद को सुलझाया ।
- अनेक लोगों का मानना था कि इस समाधान से अंग्रेजी भाषी अभिजन को लाभ पहुँचेगा ।
- राजभाषा के रूप में हिंदी को बढ़ावा देने की भारत सरकार की नीति बनी हुई है पर बढ़ावा देने का मतलब यह नहीं कि केंद्र सरकार उन राज्यों पर भी हिंदी को थोप सकती है जहाँ लोग कोई और भाषा बोलते हैं ।
- भारतीय राजनेताओं ने इस मामले में जो लचीला रुख अपनाया उसी से हम श्रीलंका जैसी स्थिति में पहुँचने से बच गए ।
❇️ भारत में भाषायी विविधता :-
🔹 1991 की जनगणना के अनुसार भारत में 1500 अलग – अलग भाषाएँ हैं । इन भाषाओं को कुछ मुख्य भाषाओं के समूह में रखा गया है ।
🔹 उदाहरण के लिये भोजपुरी , मगधी , बुंदेलखंडी , छत्तीसगढ़ी , राजस्थानी , भीली और कई अन्य भाषाओं को हिंदी के समूह में रखा गया है । विभिन्न भाषाओं के समूह बनाने के बाद भी भारत में 114 मुख्य भाषाएँ हैं ।
🔹 इनमें से 22 भाषाओं को संविधान के आठवें अनुच्छेद में अनुसूचित भाषाओं की लिस्ट में रखा गया है । अन्य भाषाओं को अ – अनुसूचित भाषा कहा जाता है । इस तरह से भाषाओं के मामले में भारत दुनिया का सबसे विविध देश है ।
❇️ भारत में विकेंद्रीकरण :-
🔹 भारत एक विशाल देश है , जहाँ दो स्तरों वाली सरकार से काम चलाना बहुत मुश्किल काम है । भारत के कुछ राज्य तो यूरोप के कई देशों से भी बड़े हैं । जनसंख्या के मामले में उत्तर प्रदेश तो रूस से भी बड़ा है । इस राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में बोली , खानपान और संस्कृति की विविधता देखने को मिलती है ।
🔹 कई स्थानीय मुद्दे ऐसे होते हैं जिनका निपटारा स्थानीय स्तर पर ही क्या जा सकता है । स्थानीय सरकार के माध्यम से सरकारी तंत्र में लोगों की सीधी भागीदारी सुनिश्चित होती है । इसलिए भारत में सरकार के एक तीसरे स्तर को बनाने की जरूरत महसूस हुई ।
❇️ पंचायती राज :-
🔹 गांव के स्तर पर स्थानीय शासन पंचायती राज कहलाता है ।
🔹 दिसम्बर 1992 में भारतीय संसद ने संविधान के 73 वें एवं 74 वें संशोधनों को मंजूरी प्रदान की । इसके तहत भारत में स्थानीय स्वशासन निकायों को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया एवं भारत में पंचायती राज व्यवस्था मजबूत बनाया गया ।
❇️ 1992 के पंचायती राज व्यवस्था के प्रमुख प्रावधान :-
- अब स्थानीय स्वशासी निकायों के चुनाव नियमित रूप से कराना संवैधानिक बाध्यता है ।
- निर्वाचित स्वशासी निकायों के सदस्य तथा पदाधिकारियों के पदों में अनूसचित जातियों , अनुसूचित जनजातियों और पिछड़ी जातियों के लिए सीटें आरक्षित हैं ।
- कम से कम एक तिहाई पद महिलाओं के लिए आरक्षित हैं ।
- हर राज्य में पंचायत और नगरपालिका चुनाव कराने के लिए राज्य चुनाव आयोग नामक स्वतंत्र संस्था का गठन किया गया है ।
- राज्य सरकारों को अपने राजस्व और अधिकारों का कुछ हिस्सा इन स्थानीय स्वशासी निकायों को देना पड़ता है ।
❇️ ग्राम पंचायत :-
🔹 प्रत्येक गांव या ग्राम समूह की एक पंचायत होती है जिसमें कई सदस्य और एक अध्यक्ष होता है । प्रधानअध्यक्ष सरपंच कहलाता है ।
❇️ पंचायत समिति :-
🔹 कई ग्राम पंचायत मिलकर ( मंडल समिति / पंचायत ) पंचायत समिति का गठन करती हैं । इसके सदस्यों का चुनाव उस इलाके के सभी पंचायत सदस्य करते हैं ।
❇️ पंचायतों की मुख्य परेशानियाँ :-
- जागरूकता का अभाव ।
- धन का अभाव ।
- अधिकारियों की मनमानी ।
- जन सहभागिता में कमी ।
- केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा समय पर वित्तीय सहायता उपलब्ध नहीं कराना ।
- चुनाव नियमित रूप से नहीं होते ।
❇️ जिला परिषद :-
🔹 किसी जिले की सभी पंचायत समितियों को मिलाकर जिला परिषद् का गठन होता है ।
🔹 जिला परिषद के अधिकांश सदस्यों का चुनाव होता है । जिला परिषद् में उसे जिले से लोक सभा और विधान सभा के लिए चुने गए सांसद और विधायक तथा जिला स्तर की संस्थाओं के कुछ अधिकारी भी सदस्य के रूप में होते हैं ।
🔹 जिला परिषद् का प्रमुख इस परिषद् का राजनीतिक प्रधान होता है ।
❇️ नगर निगम :-
🔹 इस प्रकार स्थानीय शासन वाली संस्थाएँ शहरों में भी काम करती है । छोटे शहरों में नगर पालिका होती है । बड़े शहरों में नगरनिगम का गठन होता है ।
🔹 नगरपालिका और नगरनिगम , दोनों का कामकाज निर्वाचित प्रतिनिधि करते है ।
🔹 नगरपालिका प्रमुख नगरपालिका के राजनीतिक प्रधान होते है । नगरनिगम के ऐसे पदाधिकारी को मेयर कहते हैं ।