Class 10 History Chapter 4 औद्योगीकरण का युग Notes in hindi
📚 अध्याय = 4 📚
💠 औद्योगीकरण का युग 💠
❇️ औद्योगीकरण का युग :-
🔹 जिस युग में हस्तनिर्मित वस्तुएं बनाना कम हुई और फैक्ट्री , मशीन एवं तकनीक का विकास हुआ उसे औद्योगीकरण का युग कहते हैं ।
🔹 इसमें खेतिहर समाज औद्योगिक समाज में बदल गई । 1760 से 1840 तक के युग को औद्योगीकरण युग कहा जाता है जो मनुष्य के लिए खेल परिवर्तन नियम जैसा हुआ ।
✳️ पूर्व औद्योगीकरण :-
🔹 यूरोप में औद्योगीकरण के पहले के काल को पूर्व औद्योगीकरण का काल कहते हैं । दूसरे शब्दों में कहा जाये तो यूरोप में सबसे पहले कारखाने लगने के पहले के काल को पूर्व औद्योगीकरण का काल कहते हैं । इस अवधि में गाँवों में सामान बनते थे जिसे शहर के व्यापारी खरीदते थे ।
❇️ आदि – औद्योगीकरण :-
🔹 दरअसल , इंग्लैंड और यूरोप में फैक्ट्रियों की स्थापना से भी पहले ही अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार के लिए बड़े पैमाने पर औद्योगिक उत्पादन होने लगा था । यह उत्पादन फैक्ट्रियों में नहीं होता था । बहुत सारे इतिहासकार औद्योगीकरण के इस चरण को आदि – औद्योगीकरण का नाम देते हैं ।
❇️ व्यापारियों का गाँवों पर ध्यान देने का कारण :-
🔹 शहरों में ट्रेड और क्राफ्ट गिल्ड बहुत शक्तिशाली होते थे । इस प्रकार के संगठन प्रतिस्पर्धा और कीमतों पर अपना नियंत्रण रखते थे । वे नये लोगों को बाजार में काम शुरु करने से भी रोकते थे । इसलिये किसी भी व्यापारी के लिये शहर में नया व्यवसाय शुरु करना मुश्किल होता था । इसलिये वे गाँवों की ओर मुँह करना पसंद करते थे ।
❇️ स्टेपलर :-
🔹 ऐसा व्यक्ति जो रेशों के हिसाब से ऊन को ‘ स्टेपल ‘ करता है या छाँटता है ।
❇️ फुलर :-
🔹 ऐसा व्यक्ति जो ‘ फुल ‘ करता यानी चुन्नटों के सहारे कपड़े को समेटता है ।
❇️ कार्डिंग :-
🔹 वह प्रक्रिया जिसमें कपास या ऊन आदि रेशों को कताई के लिए तैयार किया जाता है ।
❇️ कारखानों की शुरुआत :-
🔹 सबसे पहले इंगलैंड में कारखाने 1730 के दशक में बनना शुरु हुए । अठारहवीं सदी के आखिर तक पूरे इंगलैड में जगह जगह कारखाने दिखने लगे ।
🔹 इस नए युग का पहला प्रतीक कपास था । उन्नीसवीं सदी के आखिर में कपास के उत्पादन में भारी बढ़ोतरी हुई ।
🔹 1760 में ब्रिटेन में 2.5 मिलियन पाउंड का कपास आयातित होता था ।
🔹 1787 तक यह मात्रा बढ़कर 22 मिलियन पाउंड हो गई थी ।
❇️ कारखानों से लाभ :-
🔹 कारखानों के खुलने से कई फायदे हुए ।
श्रमिकों की कार्यकुशलता बढ़ गई ।
अब नई मशीनों की सहायता से प्रति श्रमिक आधिक मात्रा में और बेहतर उत्पाद बनने लगे ।
औद्योगीकरण की शुरुआत मुख्य रूप से सूती कपड़ा उद्योग में हुई ।
कारखानों में श्रमिकों की निगरानी और उनसे काम लेना अधिक आसान हो गया ।
❇️ औद्योगिक परिवर्तन की रफ्तार :-
🔹 औद्योगीरण का मतलब सिर्फ फैक्ट्री उद्योग का विकास नहीं था । कपास तथा सूती वस्त्र उद्योग एवं लोहा व स्टील उद्योग में बदलाव काफी तेजी से हुए और ये ब्रिटेन के सबसे फलते फूलते उद्योग थे ।
🔹 औद्योगीकरण के पहले दौर में (1840 के दशक तक) सूती कपड़ा उद्योग अग्रणी क्षेत्रक था ।
🔹 रेलवे के प्रसार के बाद लोहा इस्पात उद्योग में तेजी से वृद्धि हुई । रेल का प्रसार इंगलैंड में 1840 के दशक में हुआ और उपनिवेशों में यह 1860 के दशक में हुआ ।
🔹 1873 आते आते ब्रिटेन से लोहा और इस्पात के निर्यात की कीमत 77 मिलियन पाउंड हो गई । यह सूती कपड़े के निर्यात का दोगुना था ।
🔹 लेकिन औद्योगीकरण का रोजगार पर खास असर नहीं पड़ा था । उन्नीसवीं सदी के अंत तक पूरे कामगारों का 20% से भी कम तकनीकी रूप से उन्नत औद्योगिक क्षेत्रक में नियोजित था । इससे यह पता चलता है कि नये उद्योग पारंपरिक उद्योगों को विस्थापित नहीं कर पाये थे ।
❇️ नए उद्योगपति परंपरागत उद्योगों की जगह क्यों नहीं ले सके ?
औद्योगिक क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों की संख्या कम थी ।
प्रौद्योगिकीय बदलाव की गति धीमी थी ।
कपड़ा उद्योग एक गतिशील उद्योग था ।
प्रौद्योगिकी काफी महँगी थी ।
उत्पादन का एक बड़ा भाग कारखानों की बजाय गृह उद्योग से पूरा होता था ।
❇️ हाथ का श्रम और वाष्प शक्ति :-
🔹 उस जमाने में श्रमिकों की कोई कमी नहीं होती थी। इसलिये श्रमिकों की किल्लत या अधिक पारिश्रमिक की कोई समस्या नहीं थी । इसलिये महंगी मशीनों में पूँजी लगाने की अपेक्षा श्रमिकों से काम लेना ही बेहतर समझा जाता था ।
🔹 मशीन से बनी चीजें एक ही जैसी होती थीं । वे हाथ से बनी चीजों की गुणवत्ता और सुंदरता का मुकाबला नहीं कर सकती थीं । उच्च वर्ग के लोग हाथ से बनी हुई चीजों को अधिक पसंद करते थे ।
🔹 लेकिन उन्नीसवीं सदी के अमेरिका में स्थिति कुछ अलग थी । वहाँ पर श्रमिकों की कमी होने के कारण मशीनीकरण ही एकमात्र रास्ता बचा था ।
❇️ 19 वीं शताब्दी में यूरोप के उद्योगपति मशीनों की अपेक्षा हाथ के श्रम को अधिक पसंद क्यों करते थे ?
ब्रिटेन में उद्योगपतियों को मानव श्रम की कोई कमी नहीं थी ।
वे मशीन इसलिए लगाना नहीं चाहते थे क्योंकि मशीनों के लिए अधिक पूँजी निवेश करनी पड़ती थी ।
कुछ मौसमी उद्योगों के लिए वे उद्योगों में श्रमिकों द्वारा हाथ से काम करवाना अच्छा समझते थे ।
बाजार में अक्सर बारीक डिजाइन और खास आकारों वाली चीजों की माँग रहती थी जो हस्त कौशल पर निर्भर थी ।
❇️ मजदूरों की जिंदगी :-
कुल मिलाकर मजदूरों का जीवन दयनीय था ।
श्रम की बहुतायत की वजह से नौकरियों की भारी कमी थी ।
नौकरी मिलने की संभावन यारी दोस्ती कुनबे कुटुंब के जरिए जान पहचान पर निर्भर करती थी ।
बहुत सारे उद्योगों में मौसमी काम की वजह से कामगारों को बीच बीच में बहुत समय तक खाली बैठना पड़ता था ।
मजदूरों की आय के वास्तविक मूल्य में भारी कमी इसलिए गरीबी थी ।
❇️ स्पिनिंग जैनी :-
🔹 एक सूत काटने की मशीन जो जेम्स हर गीवजलीवर्स द्वारा 1764 में बनाई गई थी ।
❇️ स्पिनिंग जेनी मशीन का विरोध :-
🔹 उन्नीसवीं सदी के मध्य तक अच्छे दौर में भी शहरों की आबादी का लगभग 10% अत्यधिक गरीब हुआ करता था । आर्थिक मंदी के दौर में बेरोजगारी बढ़कर 35 से 75% के बीच हो जाती थी ।
🔹 बेरोजगारी की आशंका की वजह से मजदूर नई प्रौद्योगिकी से चिढ़ने लगे । जब ऊन उद्योग में स्पिनिंग जेनी मशीन का इस्तेमाल शुरू किया गया तो मशीनों पर हमला करने लगे ।
🔹 1840 के दशक के बाद रोजगार के अवसरों में वृद्धि हुई क्योंकि सड़कों को चौड़ा किया गया , नए रेलवे स्टेशन बनें , रेलवे लाइनों का विस्तार किया गया ।
💠 उपनिवेशो में औद्योगीकरण 💠
🔹 आइए अब भारत पर नजर डाले और देखे की उपनिवेश में औद्योगीकरण कैसे होता है ।
❇️ भारतीय कपड़े का युग :-
🔶 मशीन उद्योग से पहले का युग :-
अंतर्राष्ट्रीय कपड़ा बाजार में भारत के रेशमी और सूती उत्पादों का दबदबा था ।
उच्च किस्म का कपड़ा भारत से आर्मीनियन और फारसी सौदागर पंजाब से अफगानिस्तान , पूर्वी फारस और मध्य एशिया लेकर जाते थे ।
सूरत , हुगली और मसूली पट्नम प्रमुख बंदरगाह थे ।
विभिन्न प्रकार के भारतीय व्यापारी तथा बैंकर इस व्यापार नेटवर्क में शामिल थे ।
दो प्रकार के व्यापारी थे आपूर्ति सौदागर तथा निर्यात सौदागर ।
बंदरगाहों पर बड़े जहाज मालिक तथा निर्यात व्यापारी दलाल के साथ कीमत पर मोल भाव करते थे और आपूर्ति सौदागर से माल खरीद लेते थे ।
🔶 मशीन उद्योग के बाद का युग ( 1780 के बाद )
1750 के दशक तक भारतीय सौदागरों के नियंत्रण वाला नेटवर्क टूटने लगा ।
यूरोपीय कंपनियों की ताकत बढ़ने लगी ।
सूरत तथा हुगली जैसे पुराने बंदरगाह कमजोर पड़ गए ।
बंबई ( मुंबई ) तथा कलकता कलकत्ता एक नए बंदरगाह के रूप में उभरे ।
व्यापार यूरोपीय कंपनियों द्वारा नियंत्रित होता था तथा यूरोपीय जहाजों के जरिए होता था ।
शुरूआत में भारत के कपड़ा व्यापार में कोई कमी नहीं ।
18 वीं सदी यूरोप में भी भारतीय कपड़े की भारी मांग हुई ।
❇️ यूरोपीय कंपनियों के आने से बुनकारों का क्या हुआ ?
🔹 ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा सत्ता स्थापित करने से पहले बुनकर बेहतर स्थिति में थे क्यों कि उनका उत्पाद खरीदने वाले बहुत खरीदार थे तथा वे मोल भाव करके सबसे अधिक कीमत देने वाले को अपना सामान बेच सकते थे ।
❇️ ईस्ट इंडिया कंपनी आने के बाद बुनकरों की स्थिति :-
🔹 ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा राजनीतिक सत्ता स्थापित करने के बाद बुनकरों की स्थिति ( 1760 के बाद ) :-
भारतीय व्यापार पर ईस्ट इंडिया कम्पनी का एकाधिकार हो गया ।
कपड़ा व्यापार में सक्रिय व्यापारियों तथा दलालों को खत्म करके बुनकरो पर प्रत्यक्ष नियंत्रण ।
बुनकरों को अन्य खरीदारों के साथ कारोबार करने पर पाबंदी लगा दी ।
बुनकरों पर निगरानी रखने के लिए गुमाश्ता नाम के वेतनभोगी कर्मचारी की नियुक्ति की गई ।
बुनकरो व गुमाश्ता के बीच अक्सर टकराव होते ।
बुनकरों को कंपनी से मिलने वाली कीमत बहुत ही कम होती ।
❇️ भारत में मैनचेस्टर का आना :-
🔹 उन्नीसवीं सदी की शुरुआत से ही भारत से कपड़ों के निर्यात में कमी आने लगी । 1811 – 12 में भारत से होने वाले निर्यात में सूती कपड़े की हिस्सेदारी 33% थी जो 1850 – 51 आते आते मात्र 3% रह गई ।
🔹 ब्रिटेन के निर्माताओं के दबाव के कारण सरकार ने ब्रिटेन में इंपोर्ट ड्यूटी लगा दी ताकि इंगलैंड में सिर्फ वहाँ बनने वाली वस्तुएँ ही बिकें ।
🔹 ईस्ट इंडिया कम्पनी पर भी इस बात के लिए दबाव डाला गया कि वह ब्रिटेन में बनी चीजों को भारत के बाजारों में बेचे ।
🔹 अठारहवीं सदी के अंत तक भारत में सूती कपड़ों का आयात न के बराबर था । लेकिन 1850 आते-आते कुल आयात में 31% हिस्सा सूती कपड़े का था । 1870 के दशक तक यह हिस्सेदारी बढ़कर 50% से ऊपर चली गई ।
❇️ मैनचेस्टर के आगमन से भारतीय बुनकरों के सामने आई समस्याएं :-
🔹 19 वीं सदी के आते आते बुनकरों के सामने नई समस्याओं का जन्म हुआ ।
🔶 भारतीय बुनकरों की समस्याएँ :-
- नियति बाजार का ढह जाना ,
- स्थानीय बाजार का संकुचित हो जाना ,
- अच्छी कपास का ना मिल पाना ,
- ऊँची कीमत पर कपास खरीदने के लिए मजबूर होना ।
🔹 19 वीं सदी के अंत तक भारत में फैक्ट्रियों द्वारा उत्पादन शुरू तथा भारतीय बाजार में मशीनी उत्पाद की बाढ़ आई ।
💠 फैक्ट्रियों का आना 💠
❇️ भारत में कारखानों की शुरुआत :-
🔹 बम्बई में पहला सूती कपड़ा मिल 1854 में बना और उसमें उत्पादन दो वर्षों के बाद शुरु हो गया । 1862 तक चार मिल चालू हो गये थे ।
- उसी दौरान बंगाल में जूट मिल भी खुल गये ।
- कानपुर में 1860 के दशक में एल्गिन मिल की शुरुआत हुई ।
- अहमदाबाद में भी इसी अवधि में पहला सूती मिल चालू हुआ ।
- मद्रास के पहले सूती मिल में 1874 में उत्पादन शुरु हो चुका था ।
❇️ प्रारंभिक उद्यमी :-
🔹 ये सभी चीन के साथ व्यापार में शामिल थे । उदाहरण के लिए बंगाल में द्वारकानाथ टैगोर । इन्होने 6 संयुक्त उद्यम कंपनियाँ लगाई ।
- बम्बई में डिनशॉ पेटिट और जे . एन टाटा ।
- सेठ हुकुमचंद ने कलकता में पहली जूट मिल लगाई ।
- जी . डी बिड़ला ने भी यही किया ।
- मद्रास के कुछ सौदागर जो वर्मा मध्य पूर्व तथा पूर्वो अफ्रीका से व्यापार करते थे ।
- कुछ वाणिज्यिक समूह जो भारत के भीतर ही व्यापार करते थे ।
🔹 भारत के व्यवसाय पर अंग्रेजों का ऐसा शिकंजा था कि उसमें भारतीय व्यापारियों को बढ़ने के लिए अवसर ही नहीं थे । पहले विश्व युद्ध तक भारतीय उद्योग के अधिकतम हिस्से पर यूरोप की एजेंसियों की पकड़ हुआ करती थी ।
❇️ मज़दूर कहाँ से आए :-
- ज्यादातर मजदूर आसपास के जिलो से आते थे ।
- अधिकांशतः वे किसान तथा कारीगर जिन्हे गाँव में काम नहीं मिलता था ।
- उदाहरण के लिए बंबई के सूती कपड़ा मिल में काम करने वाले ज्यादा मजदूर पास के रत्नागिरी जिले से आते थे ।
❇️ 19 वीं सदी में भारतीय मजदूरों की दशा :-
- 1901 में भारतीय फैक्ट्रियों में 5,84,000 मजदूर काम करते थे ।
- 1946 क यह संख्या बढ़कर 24,36,000 हो चुकी थी ।
- ज्यादातर मजदूर अस्थायी तौर पर रखे जाते थे ।
- फसलों की कटाई के समय गाँव लोट जाते थे ।
- नौकरी मिलना कठिन था ।
- जॉबर मजदूरों की जिंदगी को पूरी तरह से नियंत्रित करते थे ।
❇️ जॉबर कौन थे ?
- उद्योगपतियों ने मजदूरों की भर्ती के लिए जॉबर रखा था ।
- जॉबर कोई पुराना विश्वस्त कर्मचारी होता था ।
- वह गाँव से लोगों को लाता था ।
- काम का भरोसा देता तथा शहर में बसने के लिए मदद देता ।
- जॉबर मदद के बदले पैसे व तोहफों की मांग करने लगा ।
❇️ औद्योगिक विकास का अनूठापन :-
🔹 भारत में औद्योगिक उत्पादन पर वर्चस्व रखने वाले यूरोपीय प्रबंधकीय एजेंसियों की कुछ खास तरह के उत्पादन में ही दिलचस्पी थी खासतौर पर उन चीजों में जो निर्यात की जा सकें , भारत में बेचने के लिए जैसे- चाय , कॉफी , नील , जूट , खनन उत्पाद ।
🔹 भारतीय व्यवसायियों ने वे उद्योग लगाए ( 19 वीं सदी के आखिर में ) जो मेनचेस्टर उत्पाद से प्रतिस्पर्धा नहीं करते थे । उदाहरण के लिए धागा – जो कि आयात नहीं किया जाता था तो कपड़े की बजाय धागे का उत्पादन किया गया ।
🔹 20 वीं सदी के पहले दशक में भारत में औद्योगिकरण का ढर्रा बदल गया । स्वदेशी आंदोलन लोगों को विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के लिए प्रेरित किया । इस वजह से भारत में कपड़ा उत्पादन शुरू हुआ । आगे चलकर चीन को धागे का निर्यात घट गया इस वजह से भी धागा उत्पादक कपड़ा बनाने लगे । 1900 – 1912 के बीच सूती कपड़े का उत्पादन दुगुना हो गया ।
🔹 प्रथम विश्व युद्ध ने भारत में औद्योगिक उत्पादन को तेजी से बढ़ाया । नई फैक्ट्रियों की स्थापना की गई क्योंकि ब्रिटिश मिले युद्ध के लिए उत्पादन में व्यस्त थी ।
❇️ लघु उद्योगों की बहुतायत :-
🔹 उद्योग में वृद्धि के बावजूद अर्थव्यवस्था में बड़े उद्योगों का शेअर बहुत कम था । लगभग 67% बड़े उद्योग बंगाल और बम्बई में थे ।
🔹 देश के बाकी हिस्सों में लघु उद्योग का बोलबाला था । कामगारों का एक बहुत छोटा हिस्सा ही रजिस्टर्ड कम्पनियों में काम करता था । 1911 में यह शेअर 5% था और 1931 में 10%।
🔹 बीसवीं सदी में हाथ से होने वाले उत्पाद में इजाफा हुआ । हथकरघा उद्योग में लोगों ने नई टेक्नॉलोजी को अपनाया । बुनकरों ने अपने करघों में फ्लाई शटल का इस्तेमाल शुरु किया ।
🔹 1941 आते आते भारत के 35% से अधिक हथकरघों में फ्लाई शटल लग चुका था । त्रावणकोर, मद्रास, मैसूर, कोचिन और बंगाल जैसे मुख्य क्षेत्रों में तो 70 से 80% हथकरघों में फ्लाई शटल लगे हुए थे ।
🔹 इसके अलावा और भी कई नये सुधार हुए जिससे हथकरघा के क्षेत्र में उत्पादन क्षमता बढ़ गई थी।
❇️ फ्लाई शटल :-
🔹 रस्सी और पुलियो के के जरिए चलने वाला एक यांत्रिक औजार है जिसका बुनाई के लिए इस्तेमाल किया जाता है ।
❇️ वस्तुओं के लिए बाज़ार :-
🔹 ग्राहकों को रिझाने के लिए उत्पादक कई तरीके अपनाते थे । ग्राहक को आकर्षित करने के लिए विज्ञापन एक जाना माना तरीका है ।
🔹 मैनचेस्टर के उत्पादक अपने लेबल पर उत्पादन का स्थान जरूर दिखाते थे । ‘मेड इन मैनचेस्टर’ का लबेल क्वालिटी का प्रतीक माना जाता था । इन लेबल पर सुंदर चित्र भी होते थे । इन चित्रों में अक्सर भारतीय देवी देवताओं की तस्वीर होती थी । स्थानीय लोगों से तारतम्य बनाने का यह एक अच्छा तरीका था ।
🔹 उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक उत्पादकों ने अपने उत्पादों को मशहूर बनाने के लिए कैलेंडर बाँटने भी शुरु कर दिये थे । किसी अखबार या पत्रिका की तुलना में एक कैलेंडर की शेल्फ लाइफ लंबी होती है । यह पूरे साल तक ब्रांड रिमाइंडर का काम करता था ।
🔹 भारत के उत्पादक अपने विज्ञापनों में अक्सर राष्ट्रवादी संदेशों को प्रमुखता देते थे ताकि अपने ग्राहकों से सीधे तौर पर जुड़ सकें ।