मृदा
(Soils)
❇️ मृदा :-
🔹 मृदा प्रकृति का एक मूल्यवान ( संसाधन ) है । यह भू – पर्पटी की सबसे महत्वपूर्ण पर है ।
🔹 मृदा भू – पृष्ठ का वह उपरी भाग है , जो चट्टानों के टूटे – फुटे बारीक कणों तथा वनस्पति के सड़े – गले अंशों के मिश्रण से जलवायु व जैव – रासायनिक प्रक्रिया से बनती है ।
❇️ मृदा का निर्माण :-
🔹 मृदा का निर्माण – मृदा के निर्माण की प्रक्रिया बहुत जटिल है । मृदा निर्माण को प्रभावित करने वाले कारक हैं :
🔶 जनक सामग्री अथवा मूल पदार्थ :- मृदा का निर्माण करने वाला मूल पदार्थ चट्टानों से प्राप्त होते हैं । चट्टानों के टूटने – फूटने से ही मृदा का निर्माण होता है ।
🔶 उच्चावच :- मृदा निर्माण की प्रक्रिया में उच्चावच का महत्वपूर्ण स्थान है । तीव्र ढाल वाले क्षेत्रों में जल प्रवाह की गति तेज़ होती है और मृदा के निर्माण में बाधा आती है । कम उच्चावच वाले क्षेत्रों में निक्षेप अधिक होता है । और मृदा की परत मोटी हो जाती है ।
🔶 जलवायु :- जलवायु के विभिन्न तत्व विशेषकर तापमान तथा वर्षा में पाए जाने वाले विशाल प्रादेशिक अन्तर के कारण विभिन्न प्रकार की मृदाओं का जन्म हुआ है ।
🔶 प्राकृतिक वनस्पति :- किसी भी प्रदेश में मृदा निर्माण की वास्तविक प्रक्रिया तथा इसका विकास वनस्पति की वृद्धि के साथ ही आरंभ होता है ।
🔶 समय :- मृदा की छोटी सी परत के निर्माण में कई हज़ार वर्ष लग जाते हैं ।
❇️ मृदा के प्रकार :-
🔹 जलोढ़ मृदा
🔹 लैटराइट मृदा
🔹 काली मृदा
🔹लाल / पीली मृदा
🔹 शुष्क मृदा
🔹 लवण मृदा
❇️ जलोढ़ मृदा :-
🔹 उत्तर भारत का विशाल मैदान इसी मृदा से बना है ।
🔹 जल + ओढ़ = जल अपने साथ कुछ कण लाएगा ।
🔹 अवसाद + गाद + कंकड़ + बजरी + पत्थर + जैविक पदार्थ = जलोढ़ मृदा ।
🔹 भारत में सबसे अधिक पाई जाती है ।
🔹 यह मृदा नदियों द्वारा बहाकर लाए गए अवसादों से बनती है ।
🔹सबसे उपजाऊ ।
🔹 नदी घाटियों , डेल्टाई क्षेत्रों तथा तटीय मैदानों में पाई जाती है ।
🔹 इसमें पोटाश की मात्रा अधिक और फॉस्फोरस की मात्रा कम होती है ।
🔹इस मृदा का रंग हलके धूसर से राख धूसर ( Gray ) जैसा होता है ।
🔹यह भारत में गंगा – ब्रहमपुत्र मैदानों में पाई जाती ।
❇️ काली मृदा :-
🔹 इसका निर्माण ज्वालामुखी क्रियाओं से प्राप्त लावा से होता है ।
🔹 इसे रेगड़ मिटटी भी कहते हैं ।
🔹 यह एक उपजाऊ मृदा है ।
🔹इसमें कपास की खेती होती है इसलिए इसे कपास मृदा भी कहा जाता है ।
🔹 इसमें चूना , लौह , मैग्नीशियम तथा अल्यूमिना जैसे तत्व अधिक पाए जाते हैं तथा फॉस्फोरस , नाइट्रोजन तथा जैविक तत्वों की कमी होती है ।
🔹क्षेत्र : दक्कन के पठार का अधिकतर भाग महाराष्ट्र के कुछ भाग , गुजरात , आंध्रप्रदेश तथा तमिलनाडु के कुछ भाग।
🔹 ये मृदा गीली होने पर फूल जाती है तथा चिपचिपी हो जाती है ।
❇️ लाल / पीली मृदा :-
🔹 इस मृदा का रंग लाल होता है ।
🔹 यह मृदा अधिक उपजाऊ नहीं होती ।
🔹 इसमें नाइट्रोजन , जैविक पदार्थ तथा फास्फोरिक एसिड की कमी होती है ।
🔹जलयोजित होने के कारण यह पीली दिखाई देती है ।
🔹 यह मृदा दक्षिणी पठार के पूर्वी भाग में पाई जाती है ।
🔹 क्षेत्र :- ओडिशा , छत्तीसगढ़ के कुछ भाग , मध्य गंगा के मैदान ।
🔹 महीन कणों वाली लाल और पीली मृदा उर्वर होती हैं ।
🔹 मोटे कणों वाली उच्च भूमि की मृदाएँ अनुर्वर होती हैं ।
❇️ लैटराइट मृदा :-
🔹 लैटेराइट एक लैटिन शब्द ‘ लेटर ‘ से बना है ।
🔹 शाब्दिक अर्थ – ईंट
🔹 क्षेत्र : उच्च तापमान और भारी वर्षा के क्षेत्र ।
🔹 इसका निर्माण मानसूनी जलवायु में शुष्क तथा आद्र मौसम के क्रमिक परिवर्तन के कारण होने वाली निक्षालन प्रक्रिया से हुआ है ।
🔹यह मृदा उपजाऊ नहीं होती ।
🔹 इसमें नाइट्रोजन , चूना , फॉस्फोरस तथा मैग्नीशियम की मात्रा कम होती है ।
🔹 यह मृदा पश्चिमी तट , तमिलनाडु , आंध्रप्रदेश , उड़ीसा , असम के पर्वतीय क्षेत्र तथा राजमहल की पहाड़ियों में मिलती है ।
🔹 मकान बनाने के लिए लैटेराइट मृदाओं का प्रयोग ईंटे बनाने में किया जाता है ।
❇️ शुष्क मृदा :-
🔹 इसका रंग लाल से लेकर किशमिश जैसा होता है ।
🔹 यह बलुई और लवणीय होती है ।
🔹 कुछ क्षेत्रों की मृदाओं में नमक की मात्रा इतनी अधिक होती है की इनके पानी को वाष्पीकृत करके नमक प्राप्त किया जा सकता है ।
🔹 शुष्क जलवायु , उच्च तापमान और तीव्र वाष्पीकरण के कारण इन मृदाओं में नर्मी और ह्यूमस की कमी होती है ।
🔹 ये मृदाएँ अनुर्वर हैं क्योंकि इनमे ह्यूमस तथा जैविक पदार्थ कम मात्रा में पाए जाते हैं ।
🔹 नीचे की ओर चूने की मात्रा बढ़ने के कारण निचले संस्तरों में कंकड़ की परतें पाई जाती हैं ।
🔹 मृदा के तली संस्तर में कंकडों की परतें बनने के कारण पानी का रिसाव सीमित हो जाता है ।
🔹 इसलिए सिंचाई किए जाने पर इन मृदाओं में पौधों की सतत वृद्धि के लिए नमी हमेशा बनी रहती है ।
🔹 ये मृदाएँ विशिष्ट शुष्क स्थलाकृति वाले पश्चिमी राजस्थान में विकसित हुई है ।
❇️ लवण मृदा :-
🔹 शुष्क और अर्धशुष्क तथा जलाक्रांत क्षेत्रों और अनूपों में पाई जाती है ।
🔹 इनकी संरचना बलुई से लेकर दुमटी तक होती है ।
🔹 इन्हें ऊसर मृदा भी कहते हैं ।
🔹 सोडियम , पोटैशियम , मैग्नीशियम अधिक अनुर्वर और किसी भी प्रकार की वनस्पति नहीं उगती ।
🔹 शुष्क जलवायु और ख़राब अपवाह के कारण इनमे लवणों की मात्रा बढ़ जाती है ।
🔹 कच्छ के रन में दक्षिणी – पश्चिमी मानसून के साथ नमक के कण आते हैं जो एक पपड़ी के रूप में ऊपरी सतह पर जमा हो जाते हैं ।
🔹 डेल्टा प्रदेश में समुद्री जल के भर जाने से लवण मृदाओं के विकास को बढ़ावा मिलता है ।
🔹 अत्यधिक सिंचाई वाले गहन कृषि क्षेत्रों में विशेष रूप से हरित क्रान्ति वाले क्षेत्रों में उपजाऊ जलोढ़ मृदाएँ भी लवणीय होती जा रही हैं ।
❇️ मृदा अवकर्षण :-
🔹 मृदा की उर्वरता का ह्रास ।
🔹 इसमें मृदा का पोषण स्तर गिर जाता है ।
🔹 अपरदन और दुरुपयोग के कारण मृदा की गहराई कम हो जाती है ।
🔹 भारत में मृदा संसाधनों के क्षय का मुख्य कारक मृदा अवकर्षण है ।
❇️ मृदा अपरदन :-
🔹 प्राकृतिक तथा मानवीस कारणों से मृदा के आवरण का नष्ट होना मृदा अपरदन कहलाता है ।
🔹 मृदा अपरदन के कारक के आधार पर इसे पवनकृत एवं जल जनित द्वारा अपरदन में वर्गीकृत कर सकते हैं । पवन द्वारा अपरदन शुष्क एवं अर्द्धशुष्क प्रदेशों में होता है जबकि बहते जल द्वारा अपरदन ढालों पर अधिक होता है इसे हम पुनः दो वर्गों में रखते हैं :-
🔶 परत अपरदन :- तेज बारिश के बाद मृदा की परत का हटना ।
🔶 अवनालिका अपरदन :- तीव्र ढालों पर बहते जल से गहरी नालियां बन जाती है । चंबल के बीहड़ इसका उदाहरण है ।
❇️ मृदा अपरदन के प्रमुख कारण :-
🔹 वनोन्मूलन
🔹 अतिसिंचाई
🔹 रासायनिक उर्वरकों का अधिक प्रयोग
🔹मानव द्वारा निर्माण कार्य एवं दोषपूर्ण कृषि पद्धति ।
🔹 अनियंत्रित चराई ।
🔹 वृक्षारोपण ।
🔹 समोच्च रेखीय जुताई ।
🔹 अति चराई पर नियन्त्रण ।
🔹सीमित सिंचाई ।
🔹 रासायनिक उर्वरकों का उचित प्रयोग ।
🔹 वैज्ञानिक कृषि पद्धति को अपनाना ।
❇️ मृदा संरक्षण :-
🔹 मृदा अपरदन को रोककर उसकी उर्वरता को बनाये रखना ही मृदा संरक्षण है ।
❇️ मृदा के संरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए क्या करना चाहिये ?
🔹 मृदा संरक्षण के उपाय :-
🔶 15 से 25 प्रतिशत ढाल प्रवणता वाली भूमि पर खेती न करना ।
🔶 सीढ़ीदार खेत बनाना ।
🔶 शस्यावर्तन यानि फसलों को हेरफेर के साथ उगाना ।
❇️ मृदा संरक्षण के उपाय :-
🔹 वृक्षारोपण पेड़ :- पौधे , झाड़ियाँ और घास मृदा अपरदन को रोकने में सहायता करते है ।
🔹 समोच्च रेखीय जुताई व मेड़बंदी :- तीव्र ढाल वाली भूमि पर समोच्च रेखाओं के अनुसार जुताई व मेड़ बनाने से पानी के बहाव में रुकावट आती है तथा मृदा पानी के साथ नहीं बहती ।
🔹 पशुचारण पर नियंत्रण :- भारत में पशुओं की संख्या अधिक होने के कारण ये खाली खेतों में आजाद घूमते हैं । इनकी चराई प्रक्रिया को रोककर या नियंत्रित करके मृदा के अपरदन को रोका जा सकता है ।
🔹 कृषि के सही तरीके :- कृषि के सही तरीके अपनाकर मृदा अपरदन को रोका जा सकता है ।