विभिन्न लोगों द्वारा यात्राओं के करने का उदेश्य :-
महिलाओं और पुरुषों ने रोजगार की तलाश हेतु ये यात्रा की ।
प्राकृतिक आपदाओं जैसे बाढ़ , सूखा , भूकंप इत्यादि से बचाव के लिए लोगो ने यात्रा की ।
व्यापारियों , सैनिकों , पुरोहितों और तीर्थयात्रियों के रूप में लोगो ने यात्रा की ।
साहस की भावना से प्रेरित होकर यात्राएँ की हैं ।
प्राचीन दौर में यात्राएं करने की समस्याएं :-
- लंबा समय
- सुविधाओं का अभाव
- समुद्री लुटेरो का भय
- प्राकृतिक आपदाएं
- बीमारियां
- रास्ता भटकने का भय
भारत की यात्रा करने वाले मुख्य यात्री :-
- अल – बिरूनी
- इब्न बतूता
- फ्रांस्वा बर्नियर
कुछ अन्य यात्री जिन्होंने भारत की यात्रा की :-
मार्कोपोलो :- 13 वीं सदी में वेनिस से आए यात्री मार्कोपोलो के विवरण से दक्षिण भारत की सामाजिक व आर्थिक स्थिति पर प्रकाश पड़ता है ।
निकितिन :- रूस से ( 15 वी सदी )
सायदि अली रेइस :- तुर्की ( 16 वी सदी )
फादर मांसरेत :- स्पेन ( अकबर के दरबार मे गए )
पीटर मुंडी :- इंग्लैंड ( 17 वी सदी )
अब्दुर रज्जाक :- अब्दुर रज्जाक समरकंदी ने 1440 के दशक में दक्षिण भारत की यात्रा की । उसने कालीकट बंदरगाह को देख उसके आधार पर भारत को एक विचित्र देश बताया मंगलौर में बने एक मंदिर की प्रशंसा की है । विजय नगर का भी वर्णन किया है ।
शेख आली हाजिन :- ( 1740 का दशक ) भारत से अत्यधिक निराश हुआ । तथा भारत को एक घृणित देश बताया ।
महमूद वली वल्खी :- ( 17 वी सदी ) भारत से इतना प्रभावित हुआ कि कुछ समय के लिए सन्यासी बन गया ।
दुआर्ते बरबोसा :- 1518 ई० में पुर्तगाल से दक्षिण भारत की यात्रा की ।
वैपटिस्ट तैवेनियर :- 17 वी सदी का फ्रांसीसी जोहरी है जिसने कम से कम भारत की 6 बार यात्रा की ।
अल – बिरूनी का जीवन :-
अलबरूनी का जन्म 973 ई० में ख्वारिज्म ( आधुनिक उजबेकिस्तान ) में हुआ ।
ख़्वारिश्म शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र था और अलबरूनी ने उस समय उपलब्ध सबसे अच्छी बहेतर शिक्षा प्राप्त की थी ।
हालाँकि वह यूनानी भाषा का जानकार नहीं था पर फिर भी वह प्लेटो तथा अन्य यूनानी दार्शनिकों के कार्यों से पूरी तरह परिचित था जिन्हें उसने अरबी अनुवादों के माध्यम से पढ़ा था ।
अल – बिरूनी भारत कैसे आया ?
सन् 1017 ई० में ख़्वारिश्म पर आक्रमण के पश्चात सुल्तान महमूद गजनवी यहाँ के कई विद्वानों तथा कवियों को अपने साथ अपनी राजधनी गजनी ले गया । जिसमे अलबरूनी भी एक था ।
अलबरूनी उज्बेकिस्त्ना से बंधक के रूप में गजनवी साम्राज्य में आया था । उतर भारत का पंजाब प्रान्त भी उस सम्राज्य का हिस्सा बन चूका था ।
धीरे – धीरे उसे यह शहर पसंद आने लगा और 70 वर्ष की आयु में अपनी मृत्यु तक शेष जीवन यही बिताया गजनी में ही अलबरूनी को भारत के प्रति रुचि विकसित हुई ।
1500 ई० से पहले अलबेरुनी को कुछ ही लोगो ने पढ़ा होगा जबकि भारत के बाहर अनेक लोग ऐसा कर चुके थे ।
कई भाषाओं में दक्षता ( निपुण ) हासिल करने के कारण अलबेरुनी भाषाओं की तुलना तथा ग्रन्थों का अनुवाद करने में सक्षम था ।
उसने कई संस्कृतियो जिसमे पतंजलि का व्याकरण ग्रंथ भी था का अनुवाद अरबी में किया । उसने अपने ब्राम्हण मित्रो के लिए उसने युकिल्ड ( एक यूनानी गणितज्ञ ) के कार्यो का संस्कृत में अनुवाद किया ।
अल – बिरूनी की यात्रा :-
हालाँकि उसकी यात्रा – कार्यक्रम स्पष्ट नहीं है फिर भी प्रतीत होता है कि उसने पंजाब और उत्तर भारत के कई हिस्सों की यात्रा की थी । अल – बिरूनी ने ब्राह्मण पुरोहितों तथा विद्वानों के साथ कई वर्ष बिताए और संस्कृत , धर्म तथा दर्शन का ज्ञान प्राप्त किया ।
उसके लिखने के समय यात्रा वृत्तांत अरबी साहित्य का एक मान्य हिस्सा बन चुके थे । ये वृत्तांत पश्चिम में सहारा रेगिस्तान से लेकर उत्तर में वोल्गा नदी तक फैले क्षेत्रों से संबंधित थे ।
किताब ( उल – हिन्द )
अलबरुनी द्वारा अरबी में लिखी गई पुस्तक है । इसकी भाषा सरल व स्पष्ट है ।
यह एक विस्तृत ग्रंथ है । जो धर्म और दर्शन , त्योहारों , खगोल – विज्ञान , रीति – रिवाजों तथा प्रथाओं , सामाजिक जीवन , भार – तौल तथा मापन विधियों , मूर्तिकला , कानून , मापतंत्र विज्ञान आदि विषयों के आधर पर 80 अध्यायों में विभाजित है ।
सामान्यत : अनेक इतिहासकारो का मानना है कि अलबरुनी की ज्यामितीय सरंचना स्पष्टता का मुख्य कारण गणित की और झुकाव था ।
भारत को समझने में आई बाधाएँ ( अल – बिरूनी )
अलबरुनी आपने लिए निर्धारित उद्देश्य में निहित समस्याओं से परिचित था । उसने कई अवरोधों की चर्चा की है । जो उनके अनुसार समझ मे बाधक थे ।
- ( i ) भाषा – संस्कृत , अरबी व फ़ारसी से इतनी भिन्न थी कि अनुवाद करना आसान नही था ।
- ( ii ) धार्मिक व प्रथागत भिन्न्ता थी ।
- ( iii ) अभिमान था ।
ध्यान रखने वाली बात यह है कि इन समस्याओं की जानकारी होने पर भी अलबरुनी पूरी तरह से ब्राह्मणों द्वारा रचित कृतियों पर आश्रित था । वह भारतीय समाज को समझने के लिए वेद , पुराण , भगवत गीता , पतंजलि की कृतियों तथा मनुस्मृति आदि पर निर्भर रहा ।
अलबरुनी संस्कृत के विषय मे लिखता है कि संस्कृत भाषा सीखना आसान नही है क्योंकि अरबी भाषा की तरह ही शब्दों तथा विभिन्नता , लोकोकितयों दोनो में ही इस भाषा की पहुँच बहुत विस्तृत है । इसमें एक ही वस्तु के लिए कई शब्द मूल व व्युत्पन्न प्रयुक्त किये जाते हैं ।
अल – बिरूनी के लेखन कार्य की विशेषताएँ :-
अपने लेखन कार्य में उसने अरबी भाषा का प्रयोग किया ।
इन ग्रंथों की लेखन – सामग्री शैली के विषय में उसका दृष्टिकोण आलोचनात्मक था ।
उसके ग्रंथों में दंतकथाओं से लेकर खगोल – विज्ञान और चिकित्सा संबंधी कृतियाँ भी शामिल थीं ।
प्रत्येक अध्याय में एक विशिष्ट शैली का प्रयोग किया जिसमें आरंभ में एक प्रश्न होता था , फिर संस्कृतवादी परंपराओं पर आधरित वर्णन और अंत में अन्य संस्कृतियों के साथ एक तुलना ।
अल – बिरूनी की जाति व्यवस्था का विवरण :-
अलबरुनी द्वारा जाती व्यवस्था का विवरण दिया गया है उसके अनुसार भारत मे चार सामाजिक वर्ण थे हालांकि यह दिखाना चाहता था कि फारस में भी 4 सामाजिक वर्णो की मान्यता थी ।
- ( i ) घुड़सवार तथा शासक वर्ग
- ( ii ) भिक्षु , पुरोहित तथा चिकित्सक
- ( iii ) खगोलशास्त्री व अन्य वैज्ञानिक
- ( iv ) कृषक तथा शिल्पकार
यधपि वह यह बताता है कि इस्लाम धर्म मे सभी को समान माना जाता था और भिन्नताएं केवल धार्मिकता के प्रारंभ मे थी । जाति व्यवस्था के संदर्भ मे ब्राह्म्णवादी व्यवस्था को मानने के बावजूद अलबरुनी ने अपवित्रता की मान्यता को स्वीकार नही किया ।
उसके अनुसार जाति व्यवस्था में निहित अपवित्रता की धारणा प्रकृति के नियमो के विरुद्ध है । उसने यह भी लिखा है कि हर वस्तु जो अपवित्र हो जाती है अपनी पवित्रता की मूल स्थिती को पुनः प्राप्त करने का प्रयास करती है और उसमें सफल भी होती है ।
अलबरुनी लिखता है कि वैश्य व शुद्र वर्ण के बीच अधिक अंतर नही है । यह दोनो एक साथ एक ही शहर व गाँव मे रहते हैं । ( समान घरो में व समान आवासों में मिलजुलकर )
जाति व्यवस्था के बारे में अल्वरूनी का विवरण संस्कृत ग्रंथो से पूरी तरह प्रभावित है ।
इब्नबतूता का जीवन :-
इब्नबतूता द्वारा अरबी भाषा में लिखा गया उसका यात्रा वृत्तांत जिसे रिह ला कहा जाता है , चौदहवीं शताब्दी में भारतीय उपमहाद्वीप के सामाजिक तथा सांस्कतिक जीवन के विषय में बहुत ही प्रचुर तथा रोचक जानकारियाँ देता है ।
जन्म :- तेजियर ( मोरक्को ) जो इस्लामी कानून अथवा शरिया पर अपनी विशेषता के लिए प्रसिद्ध था ।
अपने परिवार की परंपरा के अनुसार इब्न बतूता ने कम उम्र में ही साहित्यिक तथा शास्त्ररूढ़ शिक्षा हासिल की ।
इब्न बतूता प्रस्तको के स्थान पर यात्राओ से अर्जित अनुभावो को ज्ञान का अधिक महत्वपूर्ण स्रोत मानता था ।
अपनी श्रेणी के अन्य सदस्यों के विपरीत , इब्न बतूता पुस्तकों के स्थान पर यात्राओं से अर्जित अनुभव को ज्ञान का अधिक महत्त्वपूर्ण स्रोत मानता था । उसे यात्राएँ करने का बहुत शौक था और वह नए – नए देशों और लोगों के विषय में जानने के लिए दूर – दूर के क्षेत्रों तक गया ।
इब्न बतूता की यात्रा :-
अपने जन्म स्थान से गुरुवार जो बिना किसी सहयात्री या करवा के बिना अकेला ही भारत की यात्रा पर निकल पड़ा ( 1332 ई० – 1333 ई० )
भारत प्रस्थान से पहले मक्का , सीरिया , फारस , यमन , ओमान पूर्वी अफ्रीका के अनेक तटीय बदरगहो की यात्रा कर चुका था । मध्य एशिया के रास्ते होकर इब्नबतूता 1333 ई० मे स्थल मार्ग से सिंध पहुँचा ।
मोहम्मद बिन तुगलक ने उसे दिल्ली का काजी नियुक्ति किया । इब्न बतूता इस पर अनेक वर्षों तक रहा फिर उसने सुल्तान का विश्वास खो दिया उसे कैद कर लिया गया । यद्यापि बाद में पुनः उसे राजकीय सेवा में ले लिया गया ।
मोहम्मद बिन तुगलक ने 1342 ई० में मंगोल शासक ( चीन ) के पास सुल्तान के दूत के रूप में जाने का आदेश दिया । इब्न बतूता मालावार तट गया । फिर वहाँ से मालदीव गया फिर 18 महीने तक काजी के पद पर रहा ।
मालदीव से श्रीलंका गया फिर मालावार तथा मालदीप से वापस यात्रा की । इस दौरान बंगाल व असम भी गया फिर जहाज से सुमात्रा फिर सुमात्रा से चीनी बंदरगाह जयतून गया ।
उन दिनों यात्रा करना आसान ( सुरक्षित ) नही था । इब्नबतूता ने कई बार डाकुओं के हमलो को झेला यही कारण है कि वह आपने साथियों के साथ करवा में चलना पसंद करता था ।
इब्नबतूता एक जिद्दी यात्री था । जब वह वापस गया तो स्थानीय शासक के निर्देश पर उनकी कहानियों / वत्तान्तों को दर्ज किया गया । इबनजुजाई को इब्नबतूता के समरणो को लिखने के लिए नियुक्त किया ।
नारियल :-
इब्नबतूता द्वारा नारियल का वर्णन एक प्रकति के विष्मयकारी ( आश्चर्यचकित ) व्रक्षो के रूप में किया गया । भारतीय इसमे रस्सी बनाते थे या है । लोहे की किलो की बजाय इससे जहाज को सिलते थे ।
पान :-
इब्नबतूता पान का वर्णन भी करता है । पान की बेल के बारे में इब्नबतूता ने लिखा की इस पर कोई फल नहीं होता इसे केवल पत्तियों के लिए उगाया जाता है । वह नारियल व पान से पहले परिचित नही था ।
इब्नबतूता द्वारा शहरों का वर्णन :-
उसके अनुसार दिल्ली भारत का सबसे बड़ा शहर था । दौलताबाद ( महाराष्ट्र ) भी कम नही था और आकर में यह दिल्ली को चुनौती देता था ।
दिल्ली धना – बसा शहर था । जिसके चारों और प्राचीर थी । इस शहर मे 28 द्वार थे । जिसमे बदायूँ दरवाजा सबसे विशाल था । माण्डवी द्वार के भीतर एक आनाज की मड़ी होती थी । दिल्ली शहर एक बेहतरीन कब्रगाह ( कब्रिस्तान ) थी । कब्रगाह में चमेली तथा गुलाब जैसे फूल उगाये जाते थे । जो सभी मौसम में खिले रहते थे ।
आधिकाश शहरों में एक मस्जिद तथा मंदिर होता था । बंद नगरो में नर्तको , संगीतकारों और गायको के सार्वजनिक प्रर्दशन के लिए स्थान भी चिनिहत होते थे । यद्यपि इब्नबतूता की शहरों की समृद्धि का वर्णन करने में अधिक रुचि नही थी ।
इब्न बतूता द्वारा संचार प्रणाली का वर्णन :-
इब्नबतूता दिल्ली सल्तनत की डाक प्रणाली ( संचार व्यवस्था ) का विवरण देता है । लगभग सभी व्यापारिक मार्गो पर सराय तथा विश्रामशाला या विश्रामगृह स्थापित किये गए ।
इब्नबतूता डाक प्रणाली की कार्य कुशलता देखकर चकित हो गया । इसमे न केवल लंबी दूरी तक सूचना भेजना व उदार प्रेरित करना सम्भव हुआ बल्कि अल्पसूचना पर माल भेजना भी ।
डाक प्रणली इतनी कुशल थी कि जहाँ सिंह से दिल्ली की यात्रा में 50 दिन लगते थे वही गुप्तचरों की खबरें सुल्तान तक इस डाक व्यवस्था के माध्यम से मात्र 5 दिन में पहुँच जाती थी ।
भारत मे 2 प्रकार की डाक व्यवस्था थी :-
- ( i ) अश्व डाक व्यवस्था
- ( ii ) पैदल डाक व्यवस्था
अश्व डाक व्यवस्था :- अश्व डाक व्यवस्था को उलुक कहा जाता था । जो हर चार मिल की दूरी पर स्थापित राजकीय घोड़ों द्वारा संचालित होती थी ।
पैदल डाक व्यवस्था :- पैदल डाक व्यवस्था के प्रतिमिल 3 स्थान होते थे । जिसे दावा कहा जाता था । पैदल डाक व्यवस्था अश्व डाक व्यवस्था से अधिक तीव्र होती थी । डाक व्यवस्था का प्रयोग सूचना भेजने के साथ – साथ खुसासन के फलों के परिवहन के लिए भी होता था ।
फ्रांस्वा बर्नियर ( एक यात्री ) :-
फ्रांस का रहने वाला फ्रांसवा बर्नियर फ्रांसीसि चिकित्सक , राजनीतिक , दार्शनिक तथा इतिहासकार था ।
फ्रांस्वा बर्नियर 1656 ई० – 1668 ई० तक 12 वर्ष मुगल दरबार मे रहा । पहले शाहजहाँ के जेष्ठ पुत्र दाराशिकोह की चिकित्साक के रूप में बाद में मुगल दरबार के एक अमीर दानिशमंद खान के साथ एक बुद्धिजीवी तथा वैज्ञानिक के रूप में रहा ।
बर्नियर के लेखनी की विशेषताएँ :-
उसने अपनी प्रमुख कृति को फ्रांस के शासक लुई 14 वें को समर्पित किया ।
प्रत्येक दृष्टांत में बर्नियर भारत की स्थिति को यूरोप से निन्म दिखता है ।
बर्नियर के कार्य फ्रांस में 1670 ई० – 1671 ई० में प्रकाशित हुए और अगले 5 बर्षो के भीतर ही अग्रेजी डच , जापान तथा इतावली भाषा में इसको अनुवाद किया ।
बर्नियर ने कई बार मुगल सेना के साथ यात्रा की एक बार वह कश्मीर भी गया ।
बर्नियर द्वारा भू – स्वामित्व का वर्णन :-
भू – स्वामित्व के बारे में बर्नियर लिखता है कि यूरोप के विपरित भारत में निजी भूमि – स्वामित्व का आभाव था । मुगल सम्राट सारी भूमि का स्वामी था । जो इसे अपने अमीरो के बीच बाँट देता था । जो अर्थव्यवस्था के लिए हानिकारक था ।
राजकीय भू – स्वामित्व के कारण खेती का या भूधारक अपने बच्चों को नही दे सकते थे इसलिए वे भूमि में सुधार व निवेश में रुचि नही लेते थे । इससे कृषि का मार्ग रुक गया ।
बर्नियर द्वारा भारतीय समाज का वर्णन :-
बर्नियर लिखता है कि भारत मे मध्यवर्ग नही था । भारत की खेती अच्छी नहीं थी । कृषि योग्य भूमि का एक बड़ा हिस्सा कृषकों , श्रमिकों के आभाव में कृषि विहीन है और यहाँ की हवा दूषित है ।
बर्नियर चेतावनी देता है कि यदि यूरोपीय शासको ने मुगलो का अनुसरण किया तो युरोप तबाह हो जाएगा । बर्नियर भारत की अधिकांश समस्याओं की जड़े निजी भू – स्वामित्व के आभाव को मानता है ।
फ्रांसीसि दार्शनिक मांटेस्क्यु ने उसके व्रतांत का प्रयोग निरकुंशवाद की धारणा को विकसित करने में किया । इसी आधार पर माकर्स ने एशियाई उत्पादन पध्दति का सिद्धांत दिया ।
बर्नियर द्वारा शिल्पकारों का वर्णन :-
शिल्पकारों के संदर्भ मे बर्नियर लिखता है कि शिल्पकार मूल रूप से आलसी होता था । जो भी निर्माण करता वह अपनी आवश्यकताओं या अन्य बाध्यताओ के कारण करता था । शिल्पकारों के पास अपने उत्पादो को बेहतर बनाने की कोई प्रेणा नहीं थी क्योंकि मुनाफे का अधिग्रहण राज्य द्वारा किया जाता था । इसलिए उत्पादन हर जगह मुख था । हालाँकि वह यह भी मानता है पूर विश्व मे बडी मात्रा में बहुमूल्य धातुए भारत आती थी ।
बर्नियर द्वारा नगरों का वर्णन :-
नगरों के बारे में वह लिखता है सत्रहवीं सदी में लगभग 15% भारतीय जनसंख्या नगरो में रहती थी । यह अनुपात उस समय यूरोप से अधिक या इसके बाबजूद भी बर्नियर भारतीय नगरो को सिविर नगर कहता है । ये राजकीय सिविरों पर निर्भर थे ।
दास और दासियाँ :-
मध्यकाल के बाजार में खुले में खुलेआम दास बेचे व खरीदे जाते थे । जब इब्नबतूता सिंध पहुँचा तो उसने सुल्तान महमूद बिन तुगलक को घोड़े / ऊँठ तथा दास खरीदे । इब्नबतूता बताता है कि मोहमद बिन तुगलक नसीरुद्दीन नामक धर्मोपदेश के प्रवचन से इतना प्रभावित हुआ कि उसने एक लाख टके तथा 200 दास दिए ।
दसो का निम्न उपयोग था –
- ( i ) सुल्तान के कुछ दासियाँ संगीत में निपुण थी |
- ( ii ) सुल्तान अपने अमीरों पर नजर रखने के लिए दासियों को भी नियुक्त करता था ।
- ( iii ) दासों को सामान्यतः घरेलू श्रम के लिए ही इस्तेमाल किया जाता था |
- ( iv ) पालकी या डोले में पुरुषों और महिलाओं को ले जाने में इनकी सेवाएँ ली जाती थी ।
- ( v ) दासों की कीमत , विशेष रूप से उन दासियों की , जिनकी आवश्यकता घरेलू श्रम के लिए थी , बहुत कम होती थी ।
सती प्रथा :-
सती कुछ पुरातन भारतीय समुदायों में प्रचलित एक ऐसी धार्मिक प्रथा थी, जिसमें किसी पुरुष की मृत्त्यु के बाद उसकी पत्नी उसके अंतिम संस्कार के दौरान उसकी चिता में स्वयमेव प्रविष्ट होकर आत्मत्याग कर लेती थी।
बर्नियर ने सतीप्रथा का विस्तृत विवरण दिया है । उसने लिखा है हालाँकि कुछ महिला प्रसन्नता से मृत्यु को गले लगा लेती थी लेकिन अन्य को मरने के लिए बाध्य किया जाता था ।