महत्वपूर्ण अवधारणाए :-
स्रोत : –
- ( i ) ईस्ट इंडिया कंपनी के रिकॉर्ड ।
- ( ii ) जनगणना रिपोर्ट ।
- ( iii ) नगरपालिका रिपोर्ट ।
1900-1940 की अवधि के दौरान शहरी आबादी लगभग 10 % से बढ़कर 13 % हो गई ।
18 वीं शताब्दी के अंत के दौरान मद्रास , बॉम्बे और कलकत्ता महत्वपूर्ण बंदरगाहों के रूप में विकसित हो गए थे ।
सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग ने नस्लीय रूप से विशिष्ट क्लब , रेस कोर्स और थिएटर बनाए । परिवहन के नए साधनों जैसे घोड़े से खींची जाने वाली गाड़ी , ट्राम , बस आदि के विकास ने लोगों को अपने काम के स्थानों से दूर के स्थान पर रहने की सुविधा प्रदान की ।
हर जगह के शासक भवनों के माध्यम से अपनी शक्ति को व्यक्त करने का प्रयास करते हैं । कई भारतीयों ने वास्तुकला की यूरोपीय शैलियों को आधुनिकता और सभ्यता के प्रतीक के रूप में अपनाया ।
औपनिवेशिक शासन में शहर :-
पश्चिमी विश्व के ज्यादातर भागो में आधुनिक शहर औधोगिकरण के साथ सामने आए थे ।
कलकत्ता , बम्बई और मद्रास का महत्व प्रेजिडेन्सी शहरों के रूप में तेजी से बढ़ रहा था । ये शहर भारत मे ब्रिटिश सत्ता के केंद्र बन गए थे ।
उसी समय बहुत सारे दूसरे शहर कमजोर पड़ते जा रहे थे । खास चीजो के उत्पादन वाले बहुत सारे शहर इसलिए पिछड़ने लगे क्योंकि वहाँ जो चीज़े बनती थी उनकी माँग घट गई थी ।
इसी प्रकार जब अंग्रेजो ने स्थानीय राजाओ को हरा दिया और शासन के नए केंद्र पैदा हुए तो क्षेत्रीय सत्ता के पुराने केंद्र ढह गए ।
इसी प्रकिया को अक्सर विशहरीकरण कहा जाता है । मछलीपट्टनम , सूरत और श्रीरंगपटम जैसे शहरों का 19वी सदी में काफी ज्यादा विशहरीकरण हुआ । 20वी शताव्दी के शुरुआत में केवल 11% लोग शहरों में रहते थे ।
ऐतहासिक शहरीशहर दिल्ली 1911 ई० सदी में एक धूल भरा छोटा – सा कस्बा बनकर रह गया । परन्तु 1912 ई० में ब्रिटिश भारत की राजधानी बनने के बाद इसमे दोबारा जान आ गई ।
मछलीपट्टनम 17वी शताब्दी में एक महत्वपूर्ण बन्दरगाह के रूप में विकसित हुआ । 18वी शताब्दी के आखिर में जब व्यपार बम्बई , मद्रास , और कलकत्ता के नए ब्रिटिश बन्दरगाहो पर केंद्रित होने लगा तो उसका महत्व घटता गया ।
कस्बा:-
‘ कस्बा ‘ विशिष्ट प्रकार की आर्थिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के केन्द्र थे । यहाँ पर शिल्पकार , व्यापारी , प्रशासक तथा शासक रहते थे । एक प्रकार से शाही शहर और ग्रामीण अंचल के बीच का स्थान था ।
शहरों की स्थिति :-
औपनिवेशिक काल में तीन प्रमुख बड़े शहर विकसित हुए – मद्रास , कलकत्ता तथा बम्बई । ये तीनों शहर मूलतः मत्स्य ग्रहण तथा बुनाई के गाँव थे जो इंग्लिश ईस्ट इंडिया कम्पनी की व्यापारिक गतिविधियों के कारण महत्वपूर्ण केन्द्र बन गए । बाद में शासन के केन्द्र बने , जिन्हें प्रेसीडेंसी शहर कहा गया ।
शहरों का महत्व इस बात पर निर्भर करता था कि , प्रशासन तथा आर्थिक गतिविधियों का केन्द्र कहाँ है , क्योंकि वहीं रोजगार व व्यापार तंत्र मौजूद होते थे ।
मुगलों द्वारा बनाए गए शहर प्रसिद्ध थे – जनसंख्या के केन्द्रीकरण , अपने विशाल भवनों तथा अपनी शाही शोभा एवं समृद्धि के लिए । जिनमें आगरा , दिल्ली और लाहौर प्रमुख थे , जो शाही प्रशासन के केन्द्र थे ।
शाही नगर किलेबंद होते थे , उद्यान , मस्जिद , मन्दिर , मकबरे , कारवाँ , सराय , बाजार , महाविद्यालय सभी किले के अन्दर होते थे , तथा विभिन्न दरवाजों से आने – जाने पर नियंत्रण रखा जाता।
उत्तर भारत के मध्यकालीन शहरों में ” कोतवाल ‘ नामक राजकीय अधिकारी नगर के आंतरिक मामलों पर नज़र रखता था और कानून बनाए रखता था ।
18 वीं शताब्दी में परिवर्तन :-
मुगल साम्राज्य का पतन होने के साथ ही पुराने नगरों का अस्तित्व समाप्त हो गया और क्षेत्रीय शक्तियों का विकास होने के कारण नये नगर बनने लगे । इनमें लखनऊ , हैदराबाद , सेरिंगपट्म , पूना , नागपुर , बड़ौदा तथा तंजौर आदि उल्लेखनीय हैं ।
व्यापारी , प्रशासक , शिल्पकार तथा अन्य व्यवसायी पुराने नगरों से यहाँ आने लगे । यहाँ उनको काम तथा संरक्षण उपलब्ध था । चूंकि राज्यों के बीच युद्ध होते रहते थे इसलिए भाड़े के सैनिकों के लिए भी काम था ।
मुगल साम्राज्य के अधिकारियों ने कस्बे और गंज ( छोटे स्थायी बाजार ) की स्थापना की । इन शहरी केन्द्रों में यूरोपीय कम्पनियों ने भी धाक जमा ली । पुर्तगालियों ने पणजी में , डचों ने मछलीपट्टनम् , अंग्रेजों ने मद्रास तथा फ्रांसीसियों ने पांडिचेरी में अपने व्यापार केन्द्र खोल लिए ।
18 वीं शताब्दी में स्थल आधारित साम्राज्यों का स्थान जलमार्ग आधारित यूरोपीय साम्राज्यों ने ले लिया । भारत में पूँजीवाद और वाणिज्यवाद को बढ़ावा मिलने लगा ।
मध्यकालीन शहरों – सूरत , मछलीपट्टनम् तथा ढाका का पतन हो गया ।
प्लासी युद्ध के पश्चात् अंग्रेजी व्यापार में वृद्धि हुई और मद्रास , कलकत्ता तथा बम्बई जैसे शहर आर्थिक राजधानियों के रूप में स्थापित हुए ।
ये शहर औपनिवेशिक प्रशासन और सत्ता के केन्द्र बन गये ।
इन शहरों को नये तरीके से बसाया गया और भवनों तथा संस्थानों का निर्माण किया गया । रोजगार के विकास साथ ही यहाँ लोगों का आगमन भी तेज हो गया ।
औपनिवेशिक रिकॉर्ड :-
ब्रिटिश सरकार ने विस्तृत रिकॉर्ड रखा , नियमित सर्वेक्षण किया , सांख्यिकीय डेटा एकत्र किया और अपने व्यापारिक मामलों को विनियमित करने के लिए अपनी व्यापारिक गतिविधियों के आधिकारिक रिकॉर्ड प्रकाशित किए ।
उत्तर औपनिवेशिक शहरों में रिकॉर्ड्स संभालकर रखने के कारण :-
आंकड़े और जानकारियों के आधार पर शासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए ।
व्यापारिक गतिविधियों का विस्तृत ब्यौरा व्यापार को कुशलता से प्रोन्नत करने के लिए ।
शहरों के विस्तार के साथ शहरी नागरिकों के रहन – सहन , आचार – विचार , शैक्षिक जागरूकता , राजनीतिक रूझान आदि का अध्ययन करने के लिए ।
किसी स्थान की भौगोलिक बनावट और भू – दृश्यों को भलीभाँति समझने के बाद उन स्थानों पर शहरीकरण , साम्राज्य विस्तार आदि करने के लिए ।
जनसंख्या के आकार में होने वाली सामाजिक बढ़ोत्तरी का अध्ययन करके उसके अनुसार प्रशासनिक तौर – तरीकों , नियम – कानूनों आदि को बनाने तथा उनका कार्यान्वयन सुनिश्चित करने के लिए ।
आँकड़े एकत्रित करने में कठिनाइयाँ :-
( i ) लोग सही जानकारी देने को तैयार नहीं थे ।
( ii ) मृत्यु दर और बीमारियों के आंकड़े एकत्र करना मुश्किल था ।
औपनिवेशिक संदर्भ में शहरीकरण के पुनर्निर्माण को समझने में जनगणना के आंकड़े किस हद तक उपयोगी हैं ?
ये डेटा जनसंख्या की सही संख्या के साथ – साथ श्वेत और अश्वेतों की कुल जनसंख्या जानने के लिए उपयोगी हैं ।
ये आंकड़े हमें यह भी बताते हैं कि भयानक या घातक बीमारियों से लोगों की कुल संख्या या कुल आबादी किस हद तक प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुई है ।
जनगणना के आंकड़े हमें विभिन्न समुदायों की कुल संख्या , उनकी भाषा , उनके कार्यों और आजीविका के साधनों के साथ – साथ उनकी जाति और धर्म के बारे में भी पूरी जानकारी प्रदान करते हैं ।
व्हाइट और ब्लैक टाउन :-
औपनिवेशिक शहरों में गोरों ( Whites ) अर्थात् अंग्रेजों और कालों ( Blacks ) अर्थात् भारतीयों की अलग – अलग बस्तियाँ होती थीं । उस समय के लेखन में भारतीयों की बस्तियों को ” ब्लैक टाउन ” और गोरों की बस्तियों को ” व्हाइट टाउन ” कहा जाता था ।
इन शब्दों का प्रयोग नस्ली भेद प्रकट करने के लिए किया जाता था । अंग्रेजों की राजनीतिक सत्ता की मजबूती के साथ ही यह नस्ली भेद भी बढ़ता गया ।
इन दोनों बस्तियों के मकानों में भी अंतर होता था । भारतीय एजेंटों और बिचौलियों ने बाजार के आस – पास व्हाइट टाउन में परम्परागत ढंग के दालान मकान बनवाये । सिविल लाइन्स में बँगले होते थे । सुरक्षा के लिए इनके आस – पास छावनियाँ भी बसाई जाती थी ।
व्हाइट्स टाउन साफ सुथरे होते थे जबकि ब्लैक टाउन गंदे होते थे । यहाँ बीमारी फैलने का डर होता था ।
औपनिवेशिक काल में भवन निर्माण :-
औपनिवेशिक काल में भवन निर्माण की तीन शैलियाँ प्रचलन में आई ।
पहली नवशास्त्रीय ( नियोक्लासिकल ) शैली जिसमें बड़े – बड़े स्तंभों के पीछे रेखागणितीय सरंचना पाई जाती थी । जैसे –बम्बई का टाउन हॉल व एलिफिस्टन सर्कल ।
दूसरी शैली नव – गौथिक शैली थी । जिसमें ऊँची उठी हुई छत , नोकदार मेहराब बारीक साज – सज्जा देखने को मिलती है , जैसे सचिवालय , बम्बई विश्वविद्यालय , बम्बई उच्च न्यायालय ।
तीसरी शैली थी इंडो – सारासेनिक शैली , जिसमें भारतीय और यूरोपीय शैलियों का मिश्रण था , इसका प्रमुख उदाहरण है : – गेटवे ऑफ इंडिया , बम्बई का ताजमहल होटल ।
नए शहरों में सामाजिक जीवन :-
शहरों में जीवन हमेशा एक प्रवाह में लगता था , अमीर और गरीब के बीच एक बड़ी असमानता थी ।
नई परिवहन सुविधाएं जैसे घोड़ा गाड़ी , रेलगाड़ी , बसें विकसित की गई थीं । लोगों ने अब परिवहन के नए मोड का उपयोग करके घर से कार्यस्थल तक की यात्रा शुरू की ।
कई सार्वजनिक स्थानों का निर्माण किया गया था , जैसे 20 वीं शताब्दी में सार्वजनिक पार्क , थिएटर , डब और सिनेमा हॉल । इन स्थानों ने सामाजिक संपर्क के मनोरंजन और अवसर प्रदान किया ।
लोग शहरों की ओर पलायन करने लगे । क्लर्कों , शिक्षकों , वकीलों , डॉक्टरों , इंजीनियरों और एकाउंटेंट की मांग थी । स्कूल , कॉलेज और पुस्तकालय थे ।
बहस और चर्चा का एक नया सार्वजनिक क्षेत्र उभरा । सामाजिक मानदंडों , रीति – रिवाजों और प्रथाओं पर सवाल उठाए जाने लगे ।
उन्होंने नए अवसर प्रदान किये । महिलाओं के लिए अवसर । इसने महिलाओं को अपने घर से बाहर निकलने और सार्वजनिक जीवन में अधिक दिखाई देने का मार्ग प्रदान किया ।
उन्होंने शिक्षक , रंगमंच और फिल्म अभिनेत्री , घरेलू कामगार कारखानेदार आदि के रूप में नए पेशे में प्रवेश किया ।
मध्यम वर्ग की महिलाओं ने स्वयं को आत्मकथा , पत्रिकाओं और पुस्तकों के माध्यम से व्यक्त करना शुरू कर दिया ।
परंपरावादियों को इन सुधारों की आशंका थी , उन्होंने समाज के मौजूदा शासन और पितृसत्तात्मक व्यवस्था को तोड़ने की आशंका जताई ।
जिन महिलाओं को घर से बाहर जाना पड़ा , उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा और वे उन वर्षों में सामाजिक नियंत्रण की वस्तु बन गईं । शहरों में , मजदूरों का एक वर्ग या श्रमिक वर्ग थे ।
गरीब अवसर की तलाश में शहरों में आ गए , कुछ लोग जीवन के नए तरीके से जीने और नई चीजों को देखने की इच्छा के लिए शहरों में आए ।
शहरों में जीवन महंगा था , नौकरियां अनिश्चित थीं और कभी – कभी प्रवासी पैसे बचाने के लिए अपने परिवार को मूल स्थान पर छोड़ देते थे । प्रवासियों ने तमाशा ( लोक रंगमंच ) और स्वांग ( व्यंग्य ) में भी भाग लिया और इस तरह से उन्होंने शहरों के जीवन को एकीकृत करने का प्रयास किया ।
हिल स्टेशनों का विकास :-
तीन बड़े शहर :-
हम तीन बड़े शहरो – मद्रास , कलकत्ता तथा बम्बई के विकासक्रम को गहनता से देखेंगे ।
तीनो शहर मूलतः मत्स्य ग्रहण तथा बुनाई के गाँव थे ।
इंग्लिश ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यापारिक गतिविधियों के कारण व्यपार के महत्वपूर्ण केंद्र बन गए ।
कम्पनी के एजेंट 1639 ई० में मद्रास तथा 1690 ई० में कलकत्ता में बस गए ।
19वी शताब्दी के मध्य तक ये कस्बे बड़े शहर बन गए थे ।
18 वी शताब्दी में राजनीतिक तथा व्यपारिक पुनर्गठन के साथ पुराने नगर पतनोन्मुख हुए और नए नगरो का विकास होने लगा ।
मुगल सत्ता के क्रमिक क्षरण के कारण ही उसके शासन से सम्बद्ध नगरो का अवसान हो गया । मुगल राजधानियाँ दिल्ली और आगरा ने अपना राजनीतिक प्रभुत्व खो दिया ।
नयी क्षेत्रीय ताकतों का विकास क्षेत्रीय राजधानियों लखनऊ , हैदराबाद , श्रीरंगपट्टनम , पूना ( आज का पुणे ) , नागपुर , बड़ौदा और तंजोर के बढ़ते महत्त्व से प्रचलित हुआ ।
व्यपारी , प्रशासक , शिल्पकार तथा अन्य लोग पुराने मुगल केंद्रों से इन नयी राजधानियों की ओर कम तथा संरक्षण की तलाश में आने लगे ।
पुर्तगालियों ने 1510 ई० में पणजी में , डचों ने 1605 ई० में मछलीपट्टनम में , अंग्रेज ने मद्रास में 1639 ई० में तथा फ्रांसीसियों ने 17673 ई० में पांडेचेरी ( आज का पदुचेरी ) में बस्तियों को स्थापित किया ।
मद्रास की बसावट और पृथक्करण :-
कंपनी ने पहले सूरत में अपना केंद्र स्थापित किया और फिर पूर्वी तट पर कब्ज़ा करने की कोशिश की । ब्रिटिश और फ्रांसीसी दक्षिण भारत में लड़ाई में लगे थे , लेकिन 1761 में फ्रांस की हार के साथ , मद्रास सुरक्षित हो गया और वाणिज्यिक केंद्र के रूप में विकसित होने लगा ।
फोर्ट सेंट जॉर्ज एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया जहां यूरोपीय लोग रहते थे और यह अंग्रेजी पुरुषों के लिए आरक्षित था ।
अधिकारियों को भारतीयों से शादी करने की अनुमति नहीं थी । हालांकि , अंग्रेजी डच के अलावा , पुर्तगाली को किले में रहने की अनुमति दी गई थी क्योंकि वे यूरोपीय और ईसाई थे ।
मद्रास का विकास गोरों की आवश्यकता के अनुसार किया गया था । काला शहर , भारतीयों का बसना , पहले यह किले के बाहर था लेकिन बाद में इसे स्थानांतरित कर दिया गया था ।
न्यू ब्लैक टाउन मंदिर और बाजार के आसपास रहने वाले क्वार्टर के साथ पारंपरिक भारतीय शहर जैसा था । जाति विशेष के मोहल्ले थे ।
मद्रास का विकास आसपास के कई गांवों को शामिल करके किया गया था । मद्रास शहर ने स्थानीय समुदायों के लिए कई अवसर प्रदान किए ।
विभिन्न समुदाय मद्रास शहर में अपनी विशिष्ट नौकरी करते हैं , विभिन्न समुदायों के लोग ब्रिटिश सरकार की नौकरी के लिए । प्रतिस्पर्धा करने लगे ।
धीरे – धीरे परिवहन प्रणाली विकसित होने लगी । मद्रास के शहरीकरण का मतलब गांवों के बीच के क्षेत्रों को शहर के भीतर लाना था ।
कलकत्ता में नगर नियोजन :-
पूरे शहरी अंतरिक्ष और शहरी भूमि उपयोग के नक्से की तैयारी के लिए नगर नियोजन आवश्यक है ।
कलकत्ता शहर का विकास सुतानाती , कोलकाता और गोविंदपुर नामक तीन गाँवों से हुआ था । कंपनी ने गोविंदपुर गाँव की एक साइट को वहाँ एक किले के निर्माण के लिए मंजूरी दे दी ।
कलकत्ता में नगर नियोजन धीरे – धीरे फोर्ट विलियम से दूसरे हिस्सों में फैल गई । कलकत्ता के नगर नियोजन में लॉर्ड वेलेजली ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । सरकार की सहायता से लॉटरी प्लान द्वारा नगर नियोजन के कार्य को आगे बढ़ाया गया । नगर नियोजन के लिए फंड लॉटरी द्वारा उठाए गए थे ।
समिति ने कलकत्ता के लिए एक नया नक्शा बनाया , शहर में सड़कें बनाईं और अतिक्रमण के रिवरबैंक को साफ किया । कलकत्ता को स्वच्छ और रोग मुक्त बनाने के लिए कई झोपड़ियों और बस्तियों को विस्थापित किया गया और इन लोगों को कलकत्ता के बाहरी इलाके में स्थानांतरित कर दिया गया ।
शहर में बार – बार आग लगने के कारण सख्त भवन नियमन हो गया । छज्जे की छत पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और टाइलों की छत को अनिवार्य कर दिया गया था ।
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में शहर में आधिकारिक हस्तक्षेप अधिक कठोर हो गया ।
ब्रिटिशों ने अधिक झोपड़ियों को हटा दिया और अन्य क्षेत्रों की कीमत पर शहर के ब्रिटिश हिस्से को विकसित किया ।
इन नीतियों ने सफेद शहर और काले शहर के नस्लीय विभाजन को और गहरा कर दिया और स्वस्थ और अस्वस्थ के नए विभाजन में और तेजी आई । धीरे – धीरे इन नीतियों के खिलाफ जनता का विरोध हुआ
भारतीयों में साम्राज्यवाद विरोधी भावना और राष्टवाद को मजबूत किया ।
ब्रिटिश चाहते थे कि बॉम्बे , कलकत्ता और मद्रास जैसे शहर ब्रिटिश साम्राज्य की भव्यता और अधिकार का प्रतिनिधित्व करें । नगर नियोजन का उद्देश्य पश्चिमी सौंदर्य विचारों के साथ – साथ उनके सावधानीपूर्वक और तर्कसंगत योजना और निष्पादन का प्रतिनिधित्व करना था ।
बॉम्बे में वास्तुकला :-
हालांकि , सरकारी भवन मुख्य रूप से रक्षा , प्रशासन और वाणिज्य जैसी कार्यात्मक जरूरतों की सेवा करते हैं , लेकिन वे अक्सर राष्ट्रवाद , धार्मिक महिमा और शक्ति के विचारों का प्रदर्शन करने के लिए होते हैं ।
बॉम्बे के पास शुरू में सात द्वीप हैं , बाद में यह औपनिवेशिक भारत की वाणिज्यिक राजधानी बन गया और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का केंद्र भी ।
बंबई बंदरगाह मालवा से , सिंध और राजस्थान का विकास हुआ और कई भारतीय व्यापारी भी अमीर हो गए ।
बंबई ने भारतीय पूँजीपति वर्ग का विकास किया जो पारसी , मारवाड़ी , कोंकणी , मुस्लिम , गुजराती , बनिया , बोहरा , यहूदी और आर्मीनियाई जैसे विविध समुदायों से आया ।
कपास की मांग में वृद्धि , अमेरिकी गृहयुद्ध के समय और 1869 में स्वेज नहर के खुलने के दौरान बॉम्बे के आगे आर्थिक विकास हुआ ।
बॉम्बे को भारत के सबसे महत्वपूर्ण शहर में से एक घोषित किया गया था । बंबई में भारतीय व्यापारियों ने सूती मिलों और भवन निर्माण गतिविधियों में निवेश करना शुरू कर दिया ।
कई नई इमारतों का निर्माण किया गया था लेकिन उन्हें यूरोपीय शैली में बनाया गया था । यह सोचा गया था कि यह होगा :
इस तरह से कॉलोनी में घर पर महसूस करने के लिए , यूरोपीय देश में विदेशी परिदृश्य को परिचित कराएं ।
उन्हें श्रेष्ठता , अधिकार और शक्ति का प्रतीक दें ।
भारतीय विषयों और औपनिवेशिक आचार्यों के बीच अंतर पैदा करने में मदद करना ।
सार्वजनिक निर्माण के लिए , तीन व्यापक वास्तुकला शैलियों का उपयोग किया गया था । इनमें नव – शास्त्रीय , नव – गॉथिक और इंडो सारासेनिक शैलियाँ शामिल थीं ।
भवन और वास्तुकला शैलियाँ :-
आर्किटेक्चर ने उस समय प्रचलित सौंदर्य विचार को प्रतिबिंबित किया , भवन ने उन लोगों की दृष्टि भी व्यक्त की जो उन्हें बनाते हैं ।
स्थापत्य शैली भी स्वाद को ढालती है , शैलियों को लोकप्रिय बनाती है और संस्कृति की आकृति को आकार देती है ।
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से , औपनिवेशिक आदर्श का मुकाबला करने के लिए क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्वाद विकसित किए गए थे । सांस्कृतिक संघर्ष की व्यापक प्रक्रियाओं के माध्यम से शैली बदल गई है और विकसित हुई है ।