1857 का विद्रोह :-
29 मार्च 1857 ई० को युवा सिपाही मंगल पांडे को बेरखपुर में अपने अधिकारियो या अपने अफसरों पर हमला करने के आरोप में फांसी पर लटका दिया गया ।
कुछ दिन बाद मेरठ में तनाव कुछ सिपाहियों ने नए कारतूस के साथ फौजी अभ्यास करने से इनकार कर दिया ।
सिपाहियों को लगता था कि उन कारतूसों पर गाय व सुअर की चर्बी का लेप चढ़ाया जाता था ।
9 मई 1857 ई० को 85 सिपाहियों को नोकरी से निकाल दिया गया । उन्हें अपने अफसरों या अधिकारियों का हुक्म न मानने के कारण या इस आरोप में 10 – 10 साल की सजा दी गई ।
10 मई , 1857 को मेरठ में विद्रोह के प्रकोप के साथ विद्रोह शुरू हुआ । स्थानीय प्रशासन को संभालने के बाद , आसपास के गांव के लोगों के साथ सिपाहियों ने दिल्ली तक मार्च किया । वे मुगल सम्राट बहादुर शाह का समर्थन चाहते थे । सिपाही लाल किले में आए और मांग की कि सम्राट उन्हें अपना आशीर्वाद दें । बहादुर शाह के पास उनके समर्थन के अलावा कोई विकल्प नहीं था ।
मेरठ में बगावत :-
10 मई 1857 ई० सिपाहियो ने मेरठ की जेल पर धावा बोलकर वहां बंद सिपाहियो को अजाद करा लिया । उन्होने अंग्रेज अफसरों पर हमला करके उन्हें मार गिराया । 10 मई 1857 ई० की दोपहर बाद मेरठ छावनी मे सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया ।
दिल्ली में बगावत :-
सिपाहियों का एक जत्था धोडे पे सवार होकर 11 मई 1857 ई० को तड़के दिल्ली के लाल किले के फाटक पर पहुंच गए । रमजान का महीना था मुगल सम्राट बाहादुर शाह जफर नवाज पढ़कर ओर सहरी ( रोजे के दिनी में सूरज उगने से पहले का भोजन ) खाकर उठे थे ।
कुछ सिपाही लाल किले मे दाखिल होने के लिए दरबार के शिष्टाचार का पालन किये बिना बेधडक किले में धुस गए । उनकी माँग थी कि बादशाह उन्हें अपना आशीर्वाद दे । सिपाहियों से घिरे बहादुर शाह जफर नवाज के पास उनकी बात मानने के अलावा और कोई चारा नही था । इस तरह उस विद्रोह ने एक वेदता हासिल कर ली क्योकि अब उसे मुगल बादशाह के नाम पर चलाया सकता था ।
बादशाह को सिपाहियो की ये माँग माननी पड़ी उन्होंने देश भर के मुखियालो , संस्थाओं और शासको को चिट्ठी लिखकर अंग्रेजो से लड़ने के लिए भारतीय राज्यो का एक संघ बनाने का आहवान किया ।
जैसे ही यह खबर फैली कि दिल्ली पर विद्रोहियो का कब्जा हो चुका है और बहादुर शाह ने अपना समर्थन दे दिया है । हालात तेजी से बदलने लगे गंगा घाटी के धावनियो ओर दिल्ली के पश्चिम में कुुुछ धावनियो में विद्रोह के स्तर तेज होने लगे ।
विद्रोह मेंं आम लोगो के शामिल हो जाने के साथ – साथ हमलो का दायरा फैल गया । लखनऊ , कानपुर और बरेली जैसे बड़े शहरों में साहूकार और अमीर भी विद्रोहियो के गुस्से का शिकार बने । ज्यादातर जगह अमीरों के धर लूट लिए गए । तबाह कर दिए गए । इसका पता दिल्ली उर्दू अखबार से भी पता चलता है ।
1857 विद्रोह के कारण :-
1 . आर्थिक कारण
- राजस्व नीति
- हस्तशिल्प उद्योग का पतन
- व्यापारिक नीति
- भारतीप धन का निर्गमन
- जमीदारो का अत्यचार
निष्कर्ष :- इस तरह अग्रेजो की नीति ने भारतीय किसानो को उजाड़ दिया । R.C दत्त के अनुसार रैयतवाड़ी क्षेत्रो मे किसानो की हालत भिखमंगौ जैसी हो गई । शिल्पियो व दस्तकारों को बेरोजगार बना दिया । व्यापारियों का व्यापार चौपट कर दिया । जमींदारिया समाप्त कर दी । देश का धन बाहर जाने लगा और इस तरह व्यापक आर्थिक असन्तोष शासन के खिलाफ विद्रोह पैदा कर दिया ।
2 . राजनीतिक कारण
- लार्ड डलहौजी की साम्राज्यपार नीति
- अवध का विलीनीकरण
- नाना साहब और लक्ष्मीबाई के साथ अनुचित व्यवहार
- दोषपूर्ण प्रशासनिक नीति
- सम्राट का अपमान – बहादुर शाह के उतराधिकारियो को लाल किला छोड़कर दिल्ली के बाहर कुतुब मीनार के पास एक छोटे से निवास स्थान मे रहना होगा । यह उदधोषणा लार्ड डलहौजी ने 1849 ई० मे कर दी ।
इसी क्रम में 1856 ई० में कैनिग ने यह उदधोषणा की बहादुर शाह की मृत्यु के बाद मुगलो से सम्राट की पदवी छीन ली जाएगी । यह मुगल वंश की प्रतिष्ठा पर एक शरारत पूर्ण आघात था ।
निष्कर्ष :- भारतीय राजाओ वा नवाबो के राज्य पेंशन तथा उपाधी छीने जाने की व्यापक राजनीतिक प्रतिक्रिया हुई । सेना व प्रशासन के क्षेत्र में भारतीयो के साथ भेद-भाव की नीति ने भी असंतोष व क्रोध को जन्म दिया और 1857 की क्रांति के लिए जमीन तैयार की ।
3 . सामाजिक व धार्मिक कारण :-
- ईशाई मिशनरियो में असतोष
- सति प्रथा का अंत
- समुद्र पारगमन
- धर्म परिवर्तन को प्रोत्साहन
- दत्तक पुत्र पर पाबंदी – पहले तो दत्तक पुत्र की स्वीकृति ही न दी जाए और ऐसी स्थिती से बचने का प्रयास किया जाए । इस प्रकार अंग्रेजो के हस्तक्षेप पर हिन्दु मुसलमान दोनो ही क्रोधित हो उठे ।
निष्कर्ष :- सती प्रथा पर रोक लगाकर , धर्म परिवर्तन को प्रोत्साहन करके , परंपरागत उत्तराधिकार के नियम में संसोधन करके भारतीयों की सामाजिक , धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाना अत : उनके मन मे अग्रेजो के प्रति विद्रोह की ज्वाला धधकने लगी और 1857 की क्रांति लाने में सहयोग दिया ।
4 . सैनिक कारण :-
- भारतीय समाज के अभिन्न अंग
- सैनिको का अपमान
- सामरिक स्थलो पर अधिकार
- अंग्रेज सैनिको की परजय
- भेदभाव की नीति – अंग्रेज शासन काम , समान वेतन और समान नियम पर विश्वास नही करते थे ।
5 . तत्कालिक कारण :- Important
यह वह काल था जब नए एनफील्ड राइफल का सर्वप्रथम प्रयोग हो रहा था जिसके कारतूसों पर चर्बी लगी होती थी । सैनिको को इन कारतूसों के प्रयोग के समय दाँत से रेपर काटकर लोड करना होता था ।
जनवरी 1857 ई० में यह सूचना ( कारतूसों की ) बंगाल सैना से पहुंच चुकी थी । दमदम तोपखाने में कार्यरत एक खल्लासी ने एक ब्राहमण सिपाही को बताया था कि कारतूस में प्रयुक्त चर्बी सुअर एव गाय की है । इस सूचना से हिन्दू और मुसलमान दोनो ही नाराज होकर इन कारतूसों के प्रयोग से इनकार कर दिया ।
सर्वप्रथम कलकत्ता से 22 K.M दूर बैरकपुर में बंगाल सेना की टुकड़ी ने इनकार किया उसके पश्चात कलकत्ता से 180 K.M दूर बरहामपुर के सैनिकों ने इन कारतूसों के प्रयोग करने से इनकार कर दिया । इन कारतूसों के पीछे यह मान्यता थी कि अंग्रेज हिन्दू व मुसलमान दोनों का ये धर्म भ्रष्ट कर ईशाई बनानां चाहते हैं ।
विद्रोह के दौरान संचार के तरीके :-
विद्रोह के पहले और दौरान विभिन्न रेजिमेंटों के सिपाहियों के बीच संचार के सबूत मिले हैं । उनके दूत एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन चले गए । सिपाहियों या इतिहासकारों ने कहा है की , पंचायतें थीं और ये प्रत्येक रेजिमेंट से निकले देशी अधिकारियों से बनी थीं ।
इन पंचायतों द्वारा सामूहिक रूप से कुछ निर्णय लिए गए । सिपाहियों ने एक आम जीवन शैली साझा की और उनमें से कई एक ही जाति से आते हैं , इसलिए उन्होंने एक साथ बैठकर अपना विद्रोह किया ।
नेता और अनूयायी :-
जब दिल्ली में अंग्रेजो के पैर उखड़ गए तो लगभग एक हफते तक कहि कोई विद्रोह नही हुआ ।
एक के बाद एक हर रेजिमेंट में सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया । वे दिल्ली , कानपुर , लखनऊ जैसे मुख्य बिंदुओं पर दूसरी टुकड़ियों का साथ देने को निकल पड़े ।
स्वर्गीय पेशवा बाजीराव के दत्तक पुत्र नाना साहेब कानपुर के पास रहते थे उन्होंने ऐलान किया कि वह बहादुर शाह जफर के तहत गवर्नर है ।
लखनऊ की गद्दी से हटा दिए गए नवाब वाजिद अली शाह के बेटे बिरजिस केंद्र को नया नबाव घोषित कर दिया गया । बिरजिस केंद्र ने भी बहादूर शाह जफर को अपना बादशाह मान लिया । उनकी माँ बेगम हजरत महल ने अग्रेजो के खिलाफ विद्रोह को बढ़ावा देने में बढ़ – चढ़कर हिस्सा लिया ।
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई भी विद्रोही सिपाहियों के साथ जा मिली और उन्होंने नाना साहब के सेनापति तात्या टोपे के साथ मिलकर अग्रेजो को भारी चुनैती दी ।
विद्रोहियो टुकड़ियो के सामने अंग्रेजो की संख्या बहुत कम थी । 6 अगस्त 1857 को लेफिटनेंट करलन टाइलर ने अपने कमांडर इन चीफ को टेलीग्राम भेजा । जिसमे उसने अंग्रेजी के भय को व्यक्त किया और बोला हमारे लोग विरोधियों की संख्या और लगातार लड़ाई से थक गए हैं । एक – एक गाँव हमारे खिलाफ है । जमीदार भी हमारे खिलाफ खड़े हो रहे हैं । इस दौरान बहुत से नेता सामने आए ।
उदहारण के लिए फैजाबाद के मौलवी अहमदुल्ला शाह ने भविष्यवाणी की अंग्रेजों का शासन जल्दी ही खत्म हो जाएगा । बरेली के सिपाही बख्त खान ने लड़को की एक विशाल टुकड़ी के साथ दिल्ली की और कूंच कर दिया और वह इस वगावत में एक मुख्य व्यक्ति साबित हुए ।
अफवाएं तथा भविष्यवाणी :-
मेरठ से दिल्ली आने वाले सिपाहियों ने बहादुर शाह को उन कारतूसो के बारे में बताया था । जिन पर गाय और सुअर की चर्बी का लेप लगा था ।
सिपाहियो का इशारा एनफील्ड राइफल के उन कारतूसों की तरफ था जो हाल ही में उन्हें दिये गये थे । अंग्रेजो ने सिपाहियो को लाख समझाया कि ऐसा नहीं है लेकिन यह अफवाए उत्तर भारत की छावनियो मे जंगल की आग की तरह फैलती चली गई ।
राइफल इन्स्ट्रक्सन ( डिपो ) के कमांडर कैप्टन राइट ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि दमदम स्थित शास्त्रागार मे काम करने वाले नीची जाति के एक खल्लासी ने जनवरी 1857 ई० के तीसरे हफ्ते मेंं एक ब्राह्मण सिपाही से पानी पिलाने के लिए कहा ब्राह्मण सिपाही ने यह कहकर आपने लोटे से पानी पिलाने से इनकार कर दिया कि नीची जाति के छूने से लौटा अपवित्र हो जाएगा ।
रिपोर्ट के मुताबिक इस पर खल्लासी ने जवाब दिया कि वेेसे भी तुम्हारी जाति जल्द ही भ्रष्ट होने वाली है क्योकि अब तुम्हें गाय और सुअर की चर्बी लगे करतूसो को मुँह से खीचना पडेगा । इस रिपोर्ट की विश्वसनीयता के बारे मे कहना मुश्किल है । लेकिन इसमे कोई शक नही है कि जब एक बार यह अफवाएं फैलना शुरू हुई थी तो अंग्रेज अफसरो के तमाम आरत आश्वासनों के बावजूद इसे खत्म नही किया जा सका और इसने सिपाहियों में एक गहरा गुस्सा पैदा कर दिया ।
अन्य अफवाह :-
अफवाएं फैलाने वालों का कहना था कि इसी मकसद को हासिल करने के लिए अंग्रेजो ने बाजार में मिलने वाले आटे मे गाय और सुअर की हडियो का चूरा मिलवा दिया सिपाहियो और आम लोगो ने आटे को छूने से भी इन्कार दिया ।
अवध में विद्रोह :-
लॉर्ड डलहौजी ने अवध के साम्राज्य का वर्णन एक चेरी के रूप में किया है जो एक दिन हमारे मुंह में समा जाएगा । ‘ लॉर्ड डलहौजी ने 1801 में अवध में सहायक गठबंधन की शुरुआत की । धीरे – धीरे , अंग्रेजों ने अवध राज्य में अधिक रुचि विकसित की ।
कपास और इंडिगो के निर्माता के रूप में और ऊपरी भारत के प्रमुख बाजार के रूप में भी अवध की भूमिका अंग्रेज देख रहे थे । ।
1850 तक , सभी प्रमुख क्षेत्रों जैसे मराठा भूमि , दोआब , कर्नाटक , पंजाब और बंगाल को जीत लिया । 1856 में अवध के राज्य-हरण ने क्षेत्रीय विनाश को पूरा किया जो कि बंगाल के राज्य-हरण के साथ एक सदी पहले शुरू हुआ था ।
डलहौज़ी ने नवाब वाजिद अली शाह को विस्थापित किया और कलकत्ता में निर्वासन के लिए निर्वासित किया कि अवध को गलत तरीके से पेश किया जा रहा है ।
ब्रिटिश सरकार गलत तरीके से मानती है कि नवाब वाजिद अली एक अलोकप्रिय शासक थे । इसके विपरीत , वह व्यापक रूप से लोगो को प्यार करता था और लोग नवाब के नुकसान के लिए दुखी थे ।
नवाब को हटाने से अदालतों का विघटन हुआ और संस्कृति में गिरावट आई । संगीतकार , नर्तक , कवि , रसोइया , अनुचर और प्रशासनिक अधिकारी , सभी अपनी आजीविका खो देते हैं ।
एकता की कल्पना :-
1857 ई० में विद्रोहियो द्वारा जारी की गई घोषणाओ में जाति और धर्म का भेद किए बिना समाज के सभी वर्गों का आहवान किया जाता था । बहादुर शाह के नाम से जारी की गई घोषणा से मोहम्मद और महावीर दोनो की दुहाई देते हुए जनता से इस लड़ाई में शामिल होने का आहवान किया गया ।
दिलचस्प बात यह है कि आदोलन में कि हिन्दू मुसलमान के बीच खाई पैदा करने की अंग्रेजो द्वारा की गई कोशिशों के बाबजूद ऐसा कोई फर्क नहीं दिखाई दिया अंग्रेज शासन के दिसंबर 1857 ई० में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में स्थित बरेली के हिन्दुओ को मुसलमानों के खिलाफ करने के लिए 50,000 रु खर्च किए । उनकी यह कोशिश नाकामयाब रही ।
बहुत सारे स्थानों पर अग्रेजो के खिलाफ विद्रोह उन तमाम ताकतों के विरुद्ध हमले की सकल ले लेता था जिनको अग्रेजो के हिमायती या जनता का उत्पीड़क समझा जाता था ।
कई बार विद्रोही शहर के सभ्रांत को जान – बूझकर बेइज्जत करते थे । गाँवो में उन्होंने सूदखोरों के बहीखाते जला दिए और उनके घर बार तोड़ – फोड़ डाले । इससे पता चलता है कि वे ऊँच – नीच को खत्म करना चाहते हैं ।
अंग्रेजों द्वारा दमन :-
उत्तर भारत को फिर से जोड़ने के लिए , ब्रिटिश ने कानून की श्रृंखला पारित की । पूरे उत्तर भारत को मार्शल लॉ के तहत रखा गया था , सैन्य अधिकारियों और आम ब्रिटेनियों को विद्रोह के संदिग्ध भारतीय को दंडित करने की शक्ति दी गई थी ।
ब्रिटेन सरकार ने ब्रिटेन से सुदृढीकरण लाया और दिल्ली पर कब्जा करने के लिए दोहरी रणनीति की व्यवस्था की । सितंबर के अंत में ही दिल्ली पर कब्जा कर लिया गया था ।
ब्रिटिश सरकार को अवध में बहुत कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा और उन्हें विशाल पैमाने पर सैन्य शक्ति का उपयोग करना पड़ा ।
अवध में , उन्होंने जमींदारों और किसानों के बीच एकता को तोड़ने की कोशिश की , ताकि वे अपनी जमीन वापस जमींदारों को दे सकें । विद्रोही जमींदारों को खदेड़ दिया गया और लॉयल को पुरस्कृत किया गया ।
कला और साहित्य के माध्यम से विद्रोह का विवरण :-
विद्रोही दृष्टिकोण पर बहुत कम रिकॉर्ड हैं । लगभग 1857 के विद्रोह के अधिकांश कथन आधिकारिक खाते से प्राप्त किए गए थे ।
ब्रिटिश अधिकारियों ने स्पष्ट रूप से डायरी , पत्र , आत्मकथा और आधिकारिक इतिहास और रिपोर्टों में अपना संस्करण छोड़ दिया ।
ब्रिटिश समाचार पत्र और पत्रिकाओं में प्रकाशित विद्रोह की कहानियों में विद्रोहियों की हिंसा के बारे में विस्तार से बताया गया था और इन कहानियों ने सार्वजनिक भावनाओं को भड़काया और प्रतिशोध और बदले की मांग को उकसाया ।
ब्रिटिश और भारतीय द्वारा निर्मित पेंटिंग , इचिंग , पोस्टर , कार्टून , बाजार प्रिंट भी विद्रोह के महत्वपूर्ण रिकॉर्ड के रूप में कार्य करते हैं ।
विद्रोह के दौरान विभिन्न घटनाओं के लिए विभिन्न चित्रों की पेशकश करने के लिए ब्रिटिश चित्रकारों द्वारा कई चित्र बनाए गए थे । इन छवियों ने विभिन्न भावनाओं और प्रतिक्रियाओं की एक श्रृंखला को उकसाया ।
1859 में थॉमस जोन्स बार्कर द्वारा चित्रित लखनऊ की राहत ‘ जैसी पेंटिंग ब्रिटिश नायकों को याद करती है जिन्होंने अंग्रेजी को बचाया और विद्रोहियों को दमन किया ।
अंग्रेजी महिलाओं तथा ब्रिटेन की प्रतिष्ठा :-
समाचार पत्र की रिपोर्ट विशेष रूप से महिलाओं और बच्चों के खिलाफ हिंसा की घटनाओं से प्रभावित घटनाओं की भावनाओं और दृष्टिकोण को आकार देती हैं । ब्रिटेन में बदला लेने और प्रतिशोध के लिए सार्वजनिक मांगें थीं ।
ब्रिटिश सरकार ने महिलाओं को निर्दोष महिलाओं के सम्मान की रक्षा करने और असहाय बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कहा ।
कलाकारों ने आघात और पीड़ा के अपने दृश्य प्रतिनिधित्व के माध्यम से इन भावनाओं को व्यक्त किया ।
1859 में जोसेफ नोएल पाटन द्वारा चित्रित ‘ इन मेमोरियम में उस चिंताजनक क्षण को चित्रित किया गया है जिसमें महिलाएं और बच्चे असहाय और निर्दोष व्यक्ति उस घेरे में घिर जाते हैं , प्रतीत होता है कि वे अपरिहार्य अपमान , हिंसा और मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे । चित्रकला कल्पना को बढ़ाती है और क्रोध और रोष को भड़काने की कोशिश करती है । ये पेंटिंग विद्रोहियों को हिंसक और क्रूर के रूप में दर्शाती हैं ।